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प्राक्कथन ग्रंथालय में वाचन सामग्री संबंधी सूचनाओं का कम्प्यूटर पर सूचीकरण व
हस्तलिखित ग्रंथों की सूची का प्रकाशन आर्यावर्त आदिकाल से ही अपनी अनेकविध विशेषताओं के कारण भूमंडल पर सुप्रसिद्ध रहा है. इन अनेकविध विशेषताओं का एक महत्वपूर्ण अंग है, श्रुत संपदा. श्रुत यानी गुरु परम्परा से सुनकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान, जो आगे चलकर लिपिबद्ध हुआ और इसे ही हम पांडुलिपि, हस्तलिखित ग्रंथ, हस्तप्रत, manuscript आदि नामों से जानते हैं. इसी की संपदा यानी निधि. आर्षद्रष्टा महान ऋषि-मुनियों के तप, ज्ञान और उपदेशों के संग्रह द्वारा हराभरा यह देश संसार में श्रेष्ठ है. हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन को श्रुतज्ञान की उपासना से कितना सुवासित किया था इसका परिचय आज भी हमारे पास परम्परा से प्राप्त जो श्रुत धरोहर है, उससे भली-भांति हो जाता है.
प्राचीन समय में इस देश में धर्म, नीति, राजशासन व सामाजिक व्यवस्थापन आदि के संयोजन और नीति-नियमों के निर्धारण करने में तीर्थंकरों, ऋषि-मुनियों व जैन श्रमणों का अविस्मरणीय योगदान रहा है. आगम, वेद, त्रिपिटक, उपनिषद, इतिहास, पुराण आदि के अलावा छोटी-मोटी अनेक रचनाएँ भी होती रहीं, जिनके आधार पर एक प्रकार से कहा जाय तो आर्यावर्त की धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था आज पर्यन्त अक्षुण्ण चली आ रही है. इसी कारण भारत युगों-युगों से एक धर्मप्रधान देश रहा है. यहाँ की सभी प्रकार की गतिविधियों का केन्द्रबिन्दु धर्म ही रहा है. प्रागैतिहासिक समय में धर्म, नीति-नियमादि सभी व्यवहार मौखिक ही थे, परंतु अवसर्पिणी काल के प्रभाव से धीरे-धीरे परिवर्तन आया और लेखन कला का प्रारंभ हुआ. संयोगवश सभी प्रकार के धार्मिक सिद्धान्त तथा कर्मकाण्ड, दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र, राजनीति, इतिहास, पुराण व आचारादि संहिताएँ लिपिबद्ध होने लगीं. जैन आगम, सैद्धान्तिक प्रकरण, न्याय, सामाचारी इत्यादि विशालकाय साहित्य भी इसी तरह लिपिबद्ध होने लगा. समय के साथ-साथ लेखन तकनीक व लेखन सामग्री में भी परिवर्तन हुआ.
__ भारतीय धर्म दर्शनों का अपने-अपने सिद्धान्त प्रतिपादन करनेवाला एक हजार वर्ष से भी पहले लेखबद्ध किया गया और परवर्ती सदियों में भी निरंतर लिखा गया सुविशाल साहित्य इस देश की अद्वितीय पहचान बना हुआ है. इक्कीसवीं सदी के जमाने में आज भी अनेक महानुभावों द्वारा उसी प्राचीन पद्धति से साहित्य लिपिबद्ध किया जा रहा है. यह अनुलेखन कार्य भी जरूरी है, जिससे आनेवाली पीढ़ी दर पीढ़ी तक श्रुतपरम्परा सुरक्षित रहेगी एवं हमारा कर्तव्य निर्वहन भी होगा.
भारतवर्ष पर सदियों से विदेशी आक्रमण, राजनीतिक व भौगोलिक कारणों तथा कुदरती आफतों के चलते आध्यात्मिक भूमि के नाम से विश्वविख्यात आर्यावर्त की बेशकीमती लिपिबद्ध ज्ञानसंपदा जो अनुभव के आधार पर गीतार्थ बहुश्रुत वर्ग ने बड़े परिश्रम से रचित व संगृहीत की थी, वह किसी न किसी तरह से नष्ट-विनष्ट होनी प्रारम्भ हो गई. मुस्लिम आक्रमणों तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के पश्चात रही-सही ज्ञाननिधि के विनाश में तीव्रता आई या तो विदेशों में स्थानांतरित कर दी गई. अज्ञानवश वर्तमान में भी यह जघन्य प्रवृत्ति जारी है. हमारे देश के लिए यह दुर्भाग्य की बात है.
ऐसी विषम परिस्थिति में भी कोबा ज्ञानतीर्थ में परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी के अविरत सत्प्रयासों एवं श्रीसंघ के उदार सहयोग से विशिष्ट रूप से संगृहित जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति की विरासतरूप प्राचीन हस्तप्रतों के विशालकाय सुंदर संग्रह का व्यवस्थापन वस्तुतः एक बहुत बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था. लेकिन कम्प्यूटर की सहायता से परम पूज्य आचार्य भगवंत के विद्वान सुयोग्य श्रुतभक्त शिष्यों तथा संस्था के कार्यकर्ताओं की कार्य समन्वय की दक्षता ने इस कार्य को सुकर बना दिया है. सर्वप्रथम अस्त-व्यस्त अवस्था में प्राप्त इन प्रतों को व्यवस्थित करने का कार्य किया गया है. जिसमें बड़ी संख्या में मानो रद्दी की तरह अस्त-व्यस्त और बिखरे हुए पन्नों का मिलान कर हजारों की तादाद में अपूर्ण प्रतों को परिपूर्ण करने का सफल प्रयास किया गया है. अधिकांश उत्तम प्रतों को अलग छाँट लिया गया है एवं और भी बहुसंख्यक ऐसे ही अन्य ग्रंथों पर यह जटिल प्रक्रिया क्रमशः जारी है.
प्रतों पर खादीभंडार के मजबूत कागज का आवेष्टन लगाना, नाप के अनुसार वर्गीकरण करना, १-४ व ५ से ज्यादा पत्रों
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