Book Title: Jivsamas Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf View full book textPage 4
________________ ४० जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास __व्यक्ति की आध्यात्मिक शुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है तथापि प्राचीन स्तर के जैन-आगमों यथा- आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इस सिद्धान्त का कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है। सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इन गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है। समवायांग में यद्यपि चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान (जीवठाण) कहा गया है। (समवायांग, सम्पादक- मधुकरमुनि, १४/९५) समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गणस्थानों के इन चौदह नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु उसमें भी उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान ही कहा गया है। ज्ञातव्य है कि नियुक्ति में भी ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं। आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने अपनी आवश्यकनियुक्ति की टीका में इन्हें संग्रहणीसूत्र से उद्धृत बताया है। __ आगमों के समान प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। श्वेताम्बर परम्परा में इन चौदह अवस्थाओं के लिए "गुणस्थान' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) में मिलता है उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया हैं। जहाँ तक अचेल परम्परा का प्रश्न है उसमें कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम, मूलाचार और भगवती आराधना जैसे तत्त्वज्ञान एवं आचारप्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका, भट्ट अकलंक के राजवार्तिक, विद्यानन्दी के श्लोकवार्त्तिक आदि दिगम्बर आचार्यों के टीका ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। ज्ञातव्य है कि मात्र षट्खण्डागम में इन्हें जीवसमास कहा गया है। शेष सभी ग्रन्थों में इन्हें गुणस्थान के नाम से ही अभिहित किया गया है। हमारे लिए आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति (लगभग . तीसरी-चौथी शती) ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है। वहाँ उन्होंने चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैन धर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था? और यदि उसका विकास हो चुका था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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