Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 10
________________ ४६ जीवसमास | चूर्णि में योगनिरोध | अयोगी केवली अयोगी केवली | का उल्लेख है, किन्तु मूल में नहीं हैं प्रन्थ की भाषा एवं शैली जहाँ तक जीवसमास की भाषा का प्रश्न है, वह स्पष्टतया महाराष्ट्री प्राकृत है। इससे इसके सम्बन्ध में दो बातें निश्चित होती हैं- एक तो यह कि इसकी रचना सौराष्ट्र और राजस्थान में ही कहीं हुई होगी, क्योंकि यदि इसकी रचना मगध या शौरसेन में हुई होती तो इसकी भाषा में आर्ष अर्द्धमागधी अथवा शौरसेनी प्राकत होती। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इसकी रचना संघभेद के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में हुई है क्योंकि इस युग के दिगम्बर ग्रन्थ प्राय: शौरसेनी या महाराष्ट्री प्रभावित शौरसेनी में पाये जाते हैं। यद्यपि प्रस्तुत कृति महाराष्ट्री प्राकृत की रचना है, फिर भी इसमें कहीं-कहीं आर्ष अर्धमागधी के प्रयोग देखे जाते हैं। जहाँ तक जीवसमास की शैली का प्रश्न है, निश्चय ही यह षटखण्डागम के समरूप प्रतीत होती है, क्योंकि दोनों ही ग्रन्थ चौदह मार्गणाओं एवं छह और आठ अनुयोगद्वारों के आधारों पर चौदह गुणस्थानों की चर्चा करते हैं। यद्यपि षट्खण्डागम की जीवसमास से अनेक अर्थों में भित्रता है, जहाँ षट्खण्डागम सामान्यतया शौरसेनी में लिख गया है वहाँ जीवसमास सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। पुन: जहाँ षट्खण्डागम गद्य में है वहाँ जीवसमास पद्य में है। जहाँ जीवसमास संक्षिप्त है, वहाँ षट्खण्डागम व्याख्यात्मक है। फिर भी विषय प्रस्तुतीकरण की शैली एवं विषयवस्तु को लेकर दोनों में पर्याप्त समरूपता भी हैं। षट्खण्डागम के प्रारम्भिक खण्ड जीवस्थान के समान इसका भी प्रारम्भ सत्पदप्ररूपणा से होता है। इसमें भी गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम रोश्या, भव, सम्यक्, संज्ञा और आहार- इन चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों की चर्चा है। षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान के समान इसमें भी वही नाम वाले आठ अनुयोगद्वार है- १. सत्पदप्ररूपणाद्वार, २. परिमाणद्वार, ३. क्षेत्रद्वार, ४. स्पर्शनाद्वार, ५. कालद्वार, ६. अन्तार, ७. भावद्वार, ८. अल्पबहुत्वद्वार। इस प्रकार विषय प्रतिपादन में दोनों में अद्भूत शैलीगत समरूपता है। फिर भी षट्खण्डागम की अपेक्षा जीवसमास संक्षिप्त है। ऐसा लगता है कि षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड जीवसमास की ही व्याख्या हो। जीवसमास के आधारभूत ग्रन्थ जीवसमास ग्रन्थ वस्तुत: दृष्टिवाद से उद्धृत किया गया है, क्योंकि उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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