________________ 66 जीवसमास प्रथम ग्रन्थ है। इसकी प्राचीनता और महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। इसपर सर्वप्रथम मलधार गच्छीय श्री हेमचन्द्रसूरि की वृत्ति है। यह मूलग्रन्थ सर्वप्रथम ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम के द्वारा ई० सन् 1928 में प्रकाशित हुआ था। इसके भी पूर्व हेमचन्द्रसूरि की वृत्ति के साथ यह ग्रन्थ आगमोदय समिति बम्बई द्वारा ई० सन् 1927 में मुद्रित किया गया था। जिनरत्नकोष से हमें यह भी सूचना मिलती है कि इसपर मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि की वृत्ति के अतिरिक्त शीलांकाचार्य की एक टीका भी उपलब्ध होती है, जो अभी तक अप्रकाशित है। यद्यपि इसकी प्रतियाँ बड़ौदा आदि विभिन्न ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार इसकी एक अन्य टीका बृहद्वृत्ति के नाम से जानी जाती है जो मलधारगच्छोय हेमचन्द्रसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि के द्वारा विक्रम संवत् 1164 तदनुसार ई० सन् 1107 में लिखी गई थी। इस प्रकार यद्यपि मूलग्रन्थ और उसकी संस्कृत टीका उपलब्ध थी, किन्तु प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ व्यक्तियों के लिए इसके हार्द को समझ पाना कठिन था। इसका प्रथम गुजराती अनुवाद, जो मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि की टीका पर आधारित है, मुनि श्री अमितयश विजय की महाराज ने किया, जो जिनशासन आराधना ट्रस्ट, बम्बई के द्वारा ई० सन् 1985 में प्रकाशित हुआ। फिर भी हिन्दी भाषा-भाषी जनता के लिए इस महान् ग्रन्थ का उपयोग कर पाना अनुवाद के अभाव में कठिन ही था। ई० सन् 1995 में खरतरगच्छीय महत्तरा अध्यात्मयोगिनी पूज्याश्री विचक्षणश्री जी म०सा० की सुशिष्या एवं साध्वीवर्या मरुधरज्योति पूज्या मणिप्रभाश्री जी की नेश्रायवर्तिनी साध्वी श्री विद्युतप्रभाश्रीजी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ में अपनी गुरु भगिनियों के साथ अध्ययनार्थ पधारी, उनसे मैंने इस ग्रन्थ के अनुवाद के लिए निवेदन किया, जिसे उन्होंने न केवल स्वीकार किया अपितु कठिन परिश्रम करके अल्पावधि में ही इसका अनुवाद सम्पन्न किया। उसके सम्पादन और संशोधन में मेरी व्यवस्तता एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से अपेक्षा से कुछ अधिक ही समय लगा, किन्तु आज यह ग्रन्थ मुद्रित होकर लोकार्पित होने जा रहा है, यह अतिप्रसन्नता और सन्तोष का विषय है। सम्पादन एवं भूमिका लेखन में हुए विलम्ब के लिए मैं साध्वीश्री जी एवं पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org