Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 28
________________ ६४ जीवसमास निरन्तर उसी काय में जन्म लेना कायस्थिति है। इस अपेक्षा से देव और नारक पुन: उसी काय में जन्म नहीं लेते है। अत: उनकी कायस्थिति एकभवपर्यन्त ही होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च को छोड़कर शेष तिर्यश्च जीवों की कायस्थिति भव की अपेक्षा से अनन्तभव और काल की अपेक्षा से अनन्तकाल तक मानी गई है। जहाँ तक मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का प्रश्न है, उनकी स्थिति सात-आठ भव तक होती है। काल की अपेक्षा से यह कायस्थिति तीन पल्योपम और नौ करोड़ पूर्व वर्ष की हो सकती है। कायस्थिति की चर्चा के बाद काल-द्वार में गुणविभाग काल की चर्चा है। इसमें विभिन्न गणस्थानों के जघन्य और उत्कृष्ट काल की सीमा बतायी गयी है। इसी क्रम में सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, लेश्या एवं मति आदि पांच ज्ञानों की काल मर्यादा की चर्चा भी प्रस्तुत द्वार में मिलती है। इसी क्रम में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के काल मर्यादा की चर्चा करते हुए चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम और अचक्षुदर्शन का काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ऐसा तीन प्रकार का बताया गया है। यद्यपि आगम में उसके प्रथम दो प्रकारों का ही निर्देश मिलता है। इसके पश्चात् इस द्वार में भव्यत्व-अभव्यत्व आदि की अपेक्षा से भी उत्कृष्ट काल की चर्चा हुई है। द्वार के अन्त में विभिन्न मार्गणाओं और गुणस्थानों की अपेक्षा से उत्कृष्ट-जघन्य काल की चर्चा भी विस्तारपूर्वक की गई है। अन्त में अजीव द्रव्य के काल की चर्चा करते हुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय को अनादि-अनन्त बताया है। काल सामान्य दृष्टि से तो अनादि-अनन्त है, किन्तु विशेष रूप से उसे भूत, वर्तमान और भविष्य-- ऐसे तीन विभागों में बाँटा जाता है। पुद्गल द्रव्य में परमाणु एवं स्कन्धों का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी पर्यन्त बताया है। छठे अन्तरद्वार जीव जिस गति अथवा पर्याय को छोड़कर अन्य किसी गति या पर्याय को प्राप्त हुआ हो, वह जब तक पुनः उसी गति या पर्याय को प्राप्त न कर सके, तब तक का काल अन्तरकाल कहा जाता है। प्रस्तुत द्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम चार गतियों के जीवों में कौन, कहाँ, किस गति में जन्म ले सकता है, इसकी चर्चा की गई। उसके पश्चात् एकेन्द्रिय, त्रसकाय एवं सिद्धों के सामान्य अपेक्षा से निरन्तर उत्पत्ति और अन्तराल के काल की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् सिद्धोंकी निरन्तरता और अन्तराल की चर्चा करते हुए चारों गतियों, पांचों इन्द्रियों, षट् जीवनिकायों आदि की अपेक्षा से भी अन्तरकाल की चर्चा की गई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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