Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 26
________________ जीवसमास है। चौरासी लाख वर्षों को चौरासी लाख-लाख वर्षों से गुणित करने पर एक पूर्व होता है। पूर्व के आगे नयूतांग, नयूत नलिनांग, नलिन आदि की चर्चा करते हए अन्त में शीर्ष प्रहेलिका का उल्लेख किया गया है। इसके आगे का काल संख्या के द्वारा बताना सम्भव नहीं होने से उसे पल्योपम, सागरोपम आदि उपमानों से स्पष्ट किया गया है। जीवसमास में पल्योपम, सागरोपम के विविध प्रकारों और उनके उपमाओं के द्वारा मापने की विस्तृत चर्चा की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में काल के पैमानों की अतिविस्तृत और गम्भीर चर्चा उपलब्ध होती है। द्रव्य-परिमाण नामक इस द्वार के अन्त में भाव-परिमाण की चर्चा है। इसमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद-प्रभेदों का अत्यन्त ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। भाव-परिमाण की इस चर्चा के अन्त में जीवसमास में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों की चर्चा हुई है। इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार प्रमाणों को दो भागों में विभक्त किया गया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान को मतिज्ञान के अन्तर्गत तथा आगम को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। आगे नय प्रमाण की चर्चा करते हुए मूल ग्रन्थ में मात्र नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ऐसे पाँच नयों का उल्लेख हुआ है। इसी क्रम में इस द्रव्य-परिमाण-द्वार के अन्तर्गत विभिन्न गुणस्थानों में और विभिन्न मार्गणाओं में जीवों की संख्या का परिमाण बतलाया गया है। जीवसमास में प्रथम सत्प्ररूपणाद्वार की चर्चा लगभग ८५ गाथाओं में की गई है, वही दूसरे द्रव्य-परिमाण-द्वार की चर्चा भी लगभग ८२ गाथाओं में पूर्ण होती है। उसके बाद क्षेत्र-द्वार आदि शेष छ द्वारों की चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त रूप में की गई है। तीसरे क्षेत्र-द्वार में सर्वप्रथम आकाश को क्षेत्र कहा गया है और शेष जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल को-क्षेत्रीय अर्थात् उसमें रहने वाला बताया गया है। इस द्वार के अन्तर्गत सर्वप्रथम चारों गति के जीवों के देहमान की चर्चा की गई है। प्रस्तुत कृति में देहमान को यह चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ उपलब्ध होती है। यह बताया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव लोक के कितने भाग में होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में पाये जाते है, शेष गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते है, यद्यपि केवली समुद्घात करते समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। इस चर्चा के पश्चात् इसमें यह बताया गया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय और अपर्याप्त बादर जीव सर्वलोक में होते हैं, शेष जीवलोक के भाग विशेष में होते हैं। यहाँ वायुकायिक जीवों को स्व-स्थान की अपेक्षा से तो लोक के भाग विशेष में ही माना गया है, किन्तु उपपात अथवा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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