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जीवसमास
श्वेताम्बर जीवसमास और दिगम्बर जीवसमास
प्रस्तुत जीवसमास के समान ही दिगम्बर परम्परा में प्राकृत पञ्चसंग्रह के अन्तर्गत जीवसमास पाया जाता है। दोनों के नाम साम्य को देखकर स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा होती है कि इन दोनों में कितना साम्य और वैषम्य है और कौन किसके आधार पर निर्मित हुआ है। इस सम्बन्ध में भी यदि मैं अपनी ओर से कुछ कहता हूँ तो शायद यह समझा जायेगा कि मुझे कुछ पक्ष व्यामोह है। अतः इस सम्बन्ध में भी अपनी ओर से कुछ न कहकर पुनः दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पण्डित हीरालाल जी शास्त्री की पञ्चसंग्रह की भूमिका से ही कुछ अंश अविकल रूप से उद्धृत कर रहा हूँ। आदरणीय पण्डित जी लिखते हैं
“पञ्चसंग्रह के प्रथम प्रकरण का नाम जीवसमास है। इस नाम का एक ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम की ओर से सन् १९२८ में एक संग्रह के भीतर प्रकाशित हुआ है, जिसकी गाथा संख्या २८६ है। नाम- साम्य होते हुए भी अधिकांश गाथाएँ न विषयगत समता रखती हैं और न अर्थगत समता ही । गाथा- संख्या की दृष्टि से भी दोनों में पर्याप्त अन्तर है। फिर भी जितना कुछ साम्य पाया जाता है, उनके आधार पर एक बात सुनिश्चित रूप से कही जा सकती है कि श्वेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित जीवसमास प्राचीन है। पञ्चसंग्रहकार ने उसके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारों में से १- २ अनुयोगद्वार के आधार पर अपने जीवसमास प्रकरण की रचना की है। इसके पक्ष में कुछ प्रमाण निम्नप्रकार है
१. श्वेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित जीवसमास को 'पूर्वभृत्सूरिसूत्रित' माना जाता है। इसका यह अर्थ है कि जब जैन परम्परा में पूर्वो का ज्ञान विद्यमान था, उस समय किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने इसका निर्माण किया है। ग्रन्थ-रचना के देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भूतबलि और पुष्पदन्त से भी प्राचीन है और वह षट्खण्डागम के जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड की आठों प्ररूपणाओं के सूत्र निर्माण में आधार रहा है, तथा यही ग्रन्थ प्रस्तुत पञ्चसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम प्रकरण का भी आधार रहा है। इसकी साक्षी में उक्त ग्रन्थ की एक गाथा प्रमाण रूप से उपस्थित की जाती है जो कि श्वेताम्बर जीवसमास में मंगलाचरण के पश्चात् ही पाई जाती है। वह इस प्रकार है
णिक्खेव णिरुतीहिं य छहिं अट्ठहिं अणुओगदारेहिं ।
महिय जीवसमासाऽणुगंतब्बा ||२||
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