Book Title: Jivsamas Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf View full book textPage 2
________________ ३८ जीवसमास तो अवश्य सिद्ध करता है कि प्रस्तुत कृति सप्तनयों की अवधारणा के विकसित एवं सुस्थापित होने के पूर्व अर्थात् छठीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना होनी चाहिए। यद्यपि गुणस्थानों की अवधारणा की उपस्थिति के आधार पर यह कृति तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती है फिर भी नयों के सन्दर्भ में यह उस धारा का प्रतिनिधित्व करती है, जो प्राचीन रही हैं। ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम मूल में भी सर्वत्र इन्हीं पाँचों नयों का निर्देश है (५/६/३, पृ० ७१८, ४/१/४८-५०, ४/१/५६-५९, ४/२/२-४, ४/३/१-४) । जीवसमास की प्राचीनता का दूसरा आधार उसका ज्ञान सिद्धान्त है। इसमें ज्ञान के पाँच प्रकारों की चर्चा के प्रसंग में तत्त्वार्थसूत्र के समान ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्षज्ञान ही माना गया है। यह अवधारणा भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही है, किन्तु मतिज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रियप्रत्यक्ष को स्वीकार कर लेने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान चर्चा के प्रसंग में जीवसमास की स्थिति तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती है और नन्दीसूत्र के समान ही है- नन्दीसूत्र का काल लगभग पाँचवीं शती हैं । नन्दीसूत्र में ही सर्वप्रथम मतिज्ञान के एकभेद के रूप में इन्द्रियप्रत्यक्ष को व्यावहारिक प्रत्यक्ष के रूप में मान्य किया गया है। पुनः प्रमाणों की चर्चा के प्रसंग में भी इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान इन चार प्रमाणों की ही चर्चा हुई है। जैन दर्शन में चार प्रमाणों की यह चर्चा भी आगमिक युग (५वीं शती) की देन है और न्यायदर्शन से प्रभावित है, समवायांग और नन्दीसूत्र में भी इन्हीं चार प्रमाणों की चर्चा मिलती है। इसमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क इन तीन प्रमाणों की चर्चा का, जो तार्किक युग की देन है, पूर्ण अभाव है। जैनदर्शन में इन तीनों की प्रमाणों के रूप में स्वीकृति सर्वप्रथम अकलंक के काल (लगभग ८वीं शती) से प्रारम्भ होती है। अतः इससे भी इतना तो सुनिश्चित होता है कि जीवसमास ५वीं शती के पश्चात् और ८वीं शती के पूर्व अर्थात् छठी-सातवीं शती में कभी निर्मित हुआ होगा । किन्तु सातवीं शती से जीवसमास के निर्देश उपलब्ध होते हैं, अतः यह छठी शती में निर्मित हुआ होगा, इस तथ्य को मान्य किया जा सकता है। Jain Education International — तीसरे जीवसमास में चौदह गुणस्थानों का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है इससे भी यही स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ ५वीं शताब्दी के बाद की ही रचना है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य (लगभग तीसरी-चौथी शती) में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं है। अतः इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ तभी अस्तित्व में आया, जब चौदह गुणस्थानों की अवधारणा अस्तित्व में आ चुकी थी। चौदह गुणस्थानों का उल्लेख आगम साहित्य में सर्वप्रथम समवायांग और आवश्यकनिर्युक्ति की दो प्रक्षिप्त गाथाओं में पाया जाता है। किन्तु उनमें ये गाथाएँ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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