Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 3
________________ स्वकथ्य साहब “विचक्षण-व्याख्यानमाला, रायपुर चातुमांस १९९४ के अन्तर्गत जब आगमज्ञ एवं आचरण सम्पन्न डॉ. सागरमल जी साहब का आगमन हुआ, तब परमपूज्या गुरुवर्या श्री मणिप्रभाश्री जी महाराज सा. ने चर्चा के दौरान डॉ. के सम्मुख साध्वी वर्ग को उनसे अध्ययन हेतु पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी भेजने की भावना अभिव्यक्त की। डॉ. साहब की स्वीकृति तथा पूज्या गुरुवर्या श्री की प्रेरणास्वरूप हम तीन साध्वियाँ मैं मृदुलाश्री जी एवं अतुलप्रभाश्री जी ने बैतूल (म.प्र.) से पदयात्रा करते हुए बनारस की ओर प्रस्थान किया । + २५ मई १९९५ को बनारस, पार्श्वनाथ विद्यापीठ में प्रवेश हुआ। दो दिन भेलूपुर, रामघाट आदि मन्दिरों के दर्शन कर पुनः २८ मई को संस्थान में आ गये। मैंने लेखन कार्य हेतु अपनी अभिरुचि डॉ. सागरमल जी साहब के सम्मुख व्यक्त की। सम्माननीय डॉ. साहब ने अतिप्राचीन एवं पूर्वधर अज्ञात आचार्य द्वारा विरचित जीवसमास की प्रताकार प्रति मुझे अनुवाद हेतु दी। दो-तीन दिन में ही इसके प्रथम सत्प्ररूपणाद्वार की गाथाओं का अर्थ करने के पश्चात् अनुवाद में कठिनाई प्रतीत होने लगी, परन्तु डॉ. साहब की सहायता से यह कार्य आगे बढ़ता रहा। संयोग से इसी बीच डॉ. साहब के माध्यम से जीवसमास, मुनिप्रवर श्री अमितयश विजय की गुजराती अनुवाद की पुस्तक मुझे प्राप्त हो गयी। शब्दानुवाद काफी हद तक सरल हो गया। यह ग्रन्थ इस हिन्दी अनुवाद में विशेष उपयोगी रहा है, अतः मैं गुजराती अनुवादकर्ता मुनि श्री अमितयशविजय जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त करती हूँ । भाषानुवाद की कठिनाई का भी किसी सोमा तक समाधान इससे हुआ, किन्तु कुछ विषयों को लेकर काफी असमंजस की स्थिति बनी रही, फिर भी मैं और डॉ. साहब जिस सीमा तक विषय को समझ सके, उस आधार पर यह कार्य पूर्ण किया । त्रुटियाँ हो सकती हैं, विद्वानों के निर्देश मिलने पर अग्रिम संस्करण में सुधारने का ध्यान रखेंगे। जीवसमास शब्द जो पाँचवीं शती में गुणस्थान के लिए प्रयोग किया जाता था, उसका इसमें विस्तार से वर्णन है। इसमें सत्प्ररूपणा आदि आठ द्वारों और चौदह मार्गणाओं का चौदह गुणस्थानों में सह-सम्बन्ध घटित किया गया है। गुणस्थानों की विशिष्ट जानकारी के लिए यह विस्तृत ग्रन्थ काफी सन्तोषप्रद है। इसके रचयिता के प्रति मन कृतज्ञता से भर जाता है, जब उनकी निस्पृह उदारता

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