Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ सम्पादकीय ] लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल । लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी यहीं आकर मिल जाते हैं । इनमें कोई आन्तरिक विरोध नहीं रहता। जब व्यक्ति प्रात्म-कल्याण के साथ-साथ लोकसेवा एवं जनकल्याण के लिए क्रिया करता है तब उसमें बंध की नहीं, मुक्त होने की, राग की नहीं वीतराग की, उपभोग की नहीं, उपयोग की शक्ति विकसित होती है। इस शक्ति को विकसित करने की भावना से ही, इस शक्ति के विशिष्ट आराधक परम श्रद्धेय आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. की ७५वीं जयन्ती (अमृत महोत्सव–पौष शुक्ला चतुर्दशी सं० २०४१) के उपलक्ष्य में 'जिनवाणी' का यह 'कर्म सिद्धान्त विशेषांक' प्रकाशित किया जा रहा है । आचार्यश्री ज्ञानदर्शन रूप स्वाध्याय एवं चारित्र रूप सामायिक-साधना की प्रबल प्रेरणा देते हुए जनसाधारण को आत्म-शक्ति के प्रकटीकरण एवं कर्म-निर्जरा की सतत उद्बोधना देते रहे हैं। उन्हीं के तपःपूत तेजस्वी व्यक्तित्व को यह विशेषांक समपित है। 'जिनवाणी' के पूर्व प्रकाशित 'स्वाध्याय', 'सामायिक', 'तप', 'श्रावक धर्म', 'साधना' 'ध्यान', 'जैन संस्कृति और राजस्थान' आदि विशेषांकों की तरह यह विशेषांक भी अपना वैशिष्ट्य लिये हुए है। यह चार खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड 'कर्म सिद्धान्त के शास्त्रीय विवेचन' से सम्बन्धित है। इसमें जैन दर्शन में मान्य कर्म सिद्धान्त के विविध पक्षों के साथ-साथ बौद्ध, गीता, सांख्य, मीमांसा, ईसाई, इस्लाम धर्म एवं पाश्चात्य दर्शन में प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त पर अधिकृत विद्वानों के ३१ निबन्ध संकलित किये गये हैं। इनके अध्ययन से कर्म सिद्धान्त को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने और परखने में सहायता मिलती है। द्वितीय खण्ड 'कर्म सिद्धान्त के सामाजिक चिन्तन' से सम्बन्धित है । शास्त्रीय रूप में कर्म सिद्धान्त का जो विवेचन हुआ वह मुख्यतया व्यक्तिवादी धरातल पर ही । व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को विश्लेषित करने वाली आज कई विचारधाराएँ प्रवाहमान हैं। यह जिज्ञासा उठना स्वाभाविक हैं कि अध्यात्म क्षेत्र में कर्म-सिद्धान्त की प्रक्रिया का जो विकास हुआ है क्या वह हमारे वर्तमान जीवन की सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकता हैं ? और यदि हाँ तो किस रूप में व किस सीमा तक ? इस वैचारिक धरातल पर कर्म-विचार का जो चिन्तन चला है वह मुख्यतः कर्मयोग और सत्कर्म के रूप में ही। इस खण्ड में १५ निबन्ध दिये गये हैं। जिनमें ३२ से लेकर ४० तक के ६ निबन्ध देश के प्रबुद्ध विचारकों और तत्त्व चिन्तकों के हैं जो उनकी पुस्तकों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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