Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त
कर्म-फल के भोग के सम्बन्ध में कई मान्यताएँ हैं । एक मान्यता यह है कि आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है परन्तु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है । जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। वह कर्म सिद्धान्त को प्राकृतिक विधान-नियम मानकर चलता है। उसकी दृष्टि में जीव स्वयं ही अपना विधाता और नियामक है । किसी बाहरी नियन्ता की आवश्यकता नहीं। अपने पुरुषार्थ, साधना, सत्कर्म, सद्विचार द्वारा वह बंधे हुए कर्मों के फल-भोग की प्रकृति, स्थिति, रस आदि में घट-बढ़ रूप में परिवर्तन ला सकता है, पाप प्रकृति को पुण्य में, अशुभ प्रकृति को शुभ में बदल सकता है। यही नहीं वह संयम, तप आदि की साधना से अपने पूर्व में बंधे हुए कर्मों को बिना फल भोगे ही निर्जरित कर सकता है । इस दृष्टि से पिछले जन्म के अच्छे-बुरे कर्मों के द्वारा इस जीवन के सुख-दुःख की व्याख्या करते हुए भी कर्म सिद्धान्त वर्तमान में किये गये पुरुषार्थ के महत्त्व को रेखांकित करता है।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि 'व्यक्ति जैसा करेगा वैसा भरेगा' तब उसको मुक्ति कैसे होगी ? उसे सुख-दुःख, पुण्य-पाप तो भोगना ही पड़ेगा। इस सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जो क्रिया भोग के रूप में, विषयसुख की प्राप्ति के रूप में की जाती है उससे कर्मबंध होता है पर जो क्रिया अनासक्त भाव से राग-द्वेष रहित होकर विशुद्ध सेवाभाव से, विवेक और यतनापूर्वक की जाती है वह बंध का कारण नहीं होती।
'कर्म' का विचार लगभग सभी भारतीय दर्शनों और धर्मों में हुआ है। कर्म के इस विचार में सभी ने 'क्रिया' को मूलभूत आधार माना है। क्रिया 'अपने लिए' और क्रिया 'समाज के लिए' इस आधार पर वैयक्तिक कर्म और सामूहिक कर्म की चर्चा चली है। हमारी दृष्टि से इनमें कोई प्रात्यन्तिक विरोध नहीं है। जब कोई कहता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह अन्य सबको नकार रहा है । इसके मूल में प्रात्मपुरुषार्थ और आत्म-शक्ति को जागृत कर दैन्य, निराशा, पराजय, हीनता जैसी भावना को नष्ट करने का लक्ष्य रहा है। जब कोई कहता हैं कि 'तत्त्वमसि' अर्थात् तू ही ब्रह्म है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह अपने को नकार रहा है । इसके मूल में अपने अहं को विसर्जित करने का भाव निहित है । संत कबीर ने इस अनुभव को कितने सुन्दर रूप में वाणी दी है
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि ।
सब अँधियारा मिटि गया, दीपक देख्या मांहि ।। जब व्यक्ति 'मेरेपन' और 'तेरेपन' दोनों से ऊपर उठ जाता है तब वह कह उठता है 'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' अर्थात् सब ब्रह्म स्वरूप हैं। जब व्यक्ति अपने 'स्व' का 'सर्व' में विलय कर देता है तभी यह स्थिति पाती है। कबीर की आत्मा आनंद विभोर होकर कह उठती है
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