Book Title: Jinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 7
________________ जिनवाणी - जैनागम साहित्य विशेषा आगम अर्धमागधी में हैं। श्वेताम्बर आगमों पर भी स्थानीय कारणों से महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। तीर्थकर महावीर के ११ गणधरों की ९ आगम-वाचनाएँ थी, किन्तु इनमें से ९ गणधर तो भगवान महावीर के निर्वाण के पूर्व ही मुक्त हो गए थे। गौतम गणधर भी वीर निर्वाण संवत् १२ में निर्वाण प्राप्त हो गए। पंचम गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी की वाचना शेष रही तथा वही अभी संप्राप्त है। तीर्थकरों के उपदेशों का अभिप्राय ही गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में प्रस्तुत किया जाता अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियढाए. तओ सुत्तं पवत्तइ ।। - आवश्यकनियुक्ति गाथा 192 अरहन्त अर्थरूप वाणी फरमाते हैं तथा शासन के हित के लिए गणधर उसे सूत्ररूप में गूंथते हैं। गणधर भी मात्र अंग आगमों की ही रचना करते हैं, किन्तु उनके अनन्तर स्थविर अंगबाह्य आगमों की रचना करते हैं गणहरथेरकयं वा आएसा, मुक्कवारणओ वा। धुव-चल-विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। -विशेषावश्यक भाष्य गणधरों अथवा स्थविरों द्वारा रचित अंग एवं अनंग (अंग बाह्य) आगम दोनों का प्रामाण्य है। जब स्थविरकृत आगम तीर्थकर वाणी के अनुरूप एवं अबाधित हो तभी उनका प्रामाण्य स्वीकार्य होता है। मूलाचार में कहा गया है कि सूत्र गणधर कथित, प्रत्येकबुद्ध कथित, श्रुतकेवलि कथित तथा दशपूर्वी कथित होता है सुत्तं गणहरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। ___ सुदकेवलिणा कथिदं, अभिण्णदसपुवकथिदं च।। -मूलाचार 5.80 आगमों की पाटलिपुत्र (वीर निर्वाण १६० वर्ष), कुमारी पर्वत (वीर निर्वाण ३०० वर्ष), मथुरा (वीर निर्वाण ८२७), वल्लभी (नागार्जुनीय वाचना एवं वल्लभी (वीर निर्वाण ९८० वर्ष) में वाचनाएँ हुई। इनमें अन्तिम वाचना देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय हुई। आगम की यह परम्परा उसके पश्चात् निरन्तर उसी रूप में चल रही है। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों का नया निर्माण नहीं किया, किन्तु उन्होंने आगमों को सम्पादित कर उन्हें लिपिबद्ध कराया। आगमों का लेखन देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय ही हुआ, ऐसा माना जाता है। आगमों का पूर्णत: आज वह स्वरूप तो उपलब्ध नहीं है जो गणधर सुधर्मा के समय स्थिर हुआ था, क्योंकि दृष्टिवाद का पूर्णरूपेण विलोप हो चुका है। अंग आगमों में भी आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्याय उपलब्ध नहीं है। प्रश्नव्याकरण सूत्र का प्राचीन रूप लुप्त हो गया है। इस प्रकार अंग आगमों में भी कुछ विच्छिन्तता दृष्टिगोचर होती है। देवर्द्धिगणि ने आगम लेखन कराकर इस क्षरण को रोका है। आगमों की अपनी विशिष्ट शैली है. जिसमें जम्बस्वामी सारी सशर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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