Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ जैसी संगति वैसी मति • आचार्य श्री विद्यासागर जी माँ धरती का बेटी मिट्टी को सम्बोधन और यह भी देख! जैसी संगति मिलती है कितना खुला विषय है कि वैसी मति होती है उजली-उजली जल की धारा मति जैसी अग्रिम गति बादलों से झरती है मिलती जाती-- मिलती जाती-- धरा-धूल में आ धूमिल हो और यही हुआ है दल-दल में बदल जाती है। युगों-युगों से वही धारा यदि भवों-भवों से! नीम की जड़ों में जा मिलती इसलिए, जीवन का कटुता में ढलती है, आस्था से वास्ता होने पर सागर में जा गिरती रास्ता स्वयं शास्ता होकर लवणाकर कहलाती है सम्बोधित करता साधक को वही धारा, बेटा! साथी बन साथ देता है। विषधर मुख में जा आस्था के तारों पर ही विष-हाला में ढलती है, साधना की अंगुलियाँ सागरीय शुक्तिका में गिरती, चलती हैं साधक की, यदि स्वाति का काल हो, सार्थक जीवन में तब मुक्तिका बन कर स्वरातीत-सरगम झरती हैं! झिलमिलाती बेटा, समझी बात बेटा? वही जलीय सत्ता---! मूकमाटी (पृष्ठ ८-९) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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