Book Title: Jinabhashita 2004 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ जन्म-मरण से परे संत का नाम सुना था। आज उनके चारणों में आकर वह अबला रो रही है। अपने दुख की अभिव्यक्ति कर रही है। वह क्या माँग रही है, अभी यह भाव खुल नहीं पाया है। वह कह रही है कि जब आपने दिया था तो बीच में ही वापिस क्यों ले लिया, एक अबला के साथ यह तो अन्याय हुआ है। हम कुछ और नहीं चाहते, जैसा आपने दिया था वैसा ही वापिस कर दीजिये। क्योंकि हमने सुना है आप दयालु हैं। प्राणों की रक्षा करने वाले हैं। पतितों के उद्धारक हैं और इस तरह अपना दुख कहकर दुखी होकर वह अबला वहीं गिर पड़ी। संत जी उसका दुख समझ रहे हैं उसका एक ही बेटा था। आज अकस्मात् वह मरण को प्राप्त हो गया है। यही दुख का कारण है। संत जी ने उसे सांत्वना दी, लेकिन अकेले शब्दों से शान्ति कहाँ मिलती है? वह कहने लगी कि आप तो हमारे बेटे को वापिस दिला दो। संत जी ने अब थोड़ा मुस्कुराकर कहा बिल्कुल ठीक है। पूर्ति हो जायेगी। बेटा मिल जायेगा। लेकिन सारा काम विधिवत् होगा। विधि को मत भूलो। सबके लिये जो रास्ता है वही तुम्हें भी बताता हूँ। ____ वह अबला तैयार हो गयी कि बताओ क्या करना है? अपने बेटे के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। बेटा जीवित होना चाहिए। संत जी ने कहा ऐसा करो कि अपने अड़ोसपड़ोस में जाकर कुछ सरसों के दाने लेकर आना। मैं सब ठीक कर दूंगा। इतना सुनते ही वह बुढ़िया अबला जाने को तैयार हो गयी तो संत जी ने रोककर कहा कि "सुनो, मैं भूला जा रहा था, एक शर्त है कि जिस घर से सरसों लेना वहाँ पूछ लेना कि तुम्हारे घर में कोई मरा तो नहीं है। जहाँ कोई कभी नहीं मरा हो वहाँ से सरसों ले आना बस।" अबला ने सोचा कि दुनिया में एक मैं ही दुखी हूँ और शेष सारे के सारे सुखी हैं। मरण का दुख मुझे ही है। शेष किसी के यहाँ कोई नहीं मरा और वह जल्दी से पड़ोस में गयी और जाकर कहा कि संतजी ने कहा है कि तुम्हारा बेटा वापिस मिल जायेगा, लेकिन एक मुट्ठी सरसों के दाने लेकर आओ। तुम मुझे ० आचार्य श्री विद्यासागर जी मुट्ठी भर सरसों दे दो और पड़ोसिन से सरसों लेकर वह जल्दीजल्दी चार कदम भाग गई। पुन: वापिस लौटकर आयी और कहा कि पहले यह तो बताओ कि तुम्हारे घर में कोई मरा तो नहीं? तो पड़ोसिन बोली अभी फिलहाल कोई नहीं मरा, लेकिन तीन वर्ष पहले आज के दिन ही उनकी मृत्यु हो गई थी ! अरे तब ऐसे सरसों तो ठीक नहीं, ऐसा सोचकर वह बुढ़िया सरसों वापिस करके दूसरी सहेली के पास चली जाती है। ____ वहाँ भी ऐसा ही हुआ।सरसों लेकर चार कदम बढ़ी कि गुरु के वचन याद आ गये कि जहाँ भी कोई मरण को प्राप्त न हुआ हो, वहाँ से सरसों लाना। बंधुओ! मोक्षमार्ग में भी गुरुओं के वचन हमेशा-हमेशा काम में आते हैं। "उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पिय विणओ, सुत्तज्झाणं च निद्दिठं ॥" आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने हम लोगों के लिए, जो मोक्षमार्ग में आरूढ़ हैं, कहा है कि मोक्षमार्ग में चार बातों का ध्यान रखना, तो कोई तकलीफ नहीं होगी। पहली बात यथाजात रूप अर्थात् जन्म के समय जैसा बाहरी और भीतरी रूप रहता है, बाहर भी वस्त्र नहीं भीतर भी वस्त्र नहीं, वैसा ही निग्रंथ निर्विकार रूप होना चाहिये। पहले आठ दस साल के बच्चे निर्वस्त्र निर्विकार भाव से खेलते रहते थे। ऐसा सुनने में आता है कि ऐसे भी आचार्य हुए हैं, जिन्होंने बालक अवस्था से लेकर मुनि बनने तक वस्त्र पहना ही नहीं और मुनि बनने के उपरांत तो निग्रंथ रहे ही। आचार्य जिनसेन स्वामी के बारे में ऐसा आता है। दूसरी बात गुरुवचन अर्थात् गुरु के वचनों का पालन करना। गुरुमंत्र का ध्यान रखना, शास्त्र तो समुद्र हैं। शास्त्र से ज्ञान बढ़ता है, लेकिन गुरु के वचन से ज्ञान के साथ अनुभव भी प्राप्त होता है। गुरु, शास्त्र का अध्ययन करके अपने पूर्व गुरु महाराज की अनुभूतियों को अपने जीवन में उतार करके और स्वयं की अनुभूतियों को उसमें मिलाकर देते हैं, जैसे- माँ, बच्चे को दूध में मिश्री घोलकर पिलाती है और कुछ गातीबहलाती भी जाती है। तीसरी बात है विनय, नम्रता, अभिमान का अभाव। यदि विनय गुण गुम गया तो ध्यान रखना, शास्त्र-ज्ञान भी कार्यकारी नहीं होगा। अंत में रखा है शास्त्र का अध्ययन, चिंतन, मनन करते रहना, जिससे उपयोग में स्थिरता बनी रहे, मन की चंचलता मिट जाये। तो गुरुओं के द्वारा कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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