Book Title: Jinabhashita 2002 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ संपादकीय महाकवि आचार्यश्री ज्ञानसागर जी का 30वाँ समाधिदिवस संस्कृत के महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज | उनमें अद्भुत काव्य प्रतिभा थी। उन्होंने संस्कृत भाषा में जयोदय, लोकोत्तर शिष्य (आचार्य श्री विद्यासागर जी) के लोकोत्तर गुरु वीरोदय और सुदर्शनोदय नाम के ऐसे उत्कृष्ट महाकाव्यों की थे। कृति की श्रेष्ठता कर्ता की श्रेष्ठता का अनुमान करा देती है।| रचना की, जिन्हें काव्यमर्मज्ञों ने भारवि, माघ और श्रीहर्ष के आचार्य श्री विद्यासागर जी जैसे अनुपम वीतराग व्यक्तित्व को | महाकाव्यों की टक्कर का माना है तथा बृहत्त्रयी नाम से प्रसिद्ध गढ़नेवाला शिल्पी कितना अनुपम होगा यह विद्यासागर जी के | किरातार्जुनीय, शिशुपालवध एवं नैषधीयचरित की श्रेणी में जयोदय व्यक्तित्व को देखकर सहज ही अनुमानगम्य हो जाता है। उस | को रखकर उन्हें बृहच्चतुष्टयी संज्ञा से मण्डित किया है। महाकवि अनुपम व्यक्तित्व के धनी आचार्य ज्ञानसागर जी के पाँच गुण | भूरामल जी के महाकाव्य विविध वक्रताओं, प्रतीकों, बिम्बों, उल्लेखनीय हैं: ज्ञानपिपासा, स्वावलम्बन, महाकवित्व, शिष्यसंस्कार- | अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों, सूक्तियों आदि सभी काव्य गुणों कौशल एवं त्याग और नम्रता की चरमसीमा। से विभूषित हैं। उनके 'जयोदय' महाकाव्य की समीक्षा करते हुए ज्ञानपिपासा संस्कृत के अन्तःराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् डॉ. सत्यव्रत शास्त्री आचार्यश्री का गृहस्थावस्था का नाम श्री भूरामल था। लिखते हैंअपने गाँव के विद्यालय में वे केवल प्रारम्भिक शिक्षा ही प्राप्त कर "मुनि श्री ज्ञानसागर जी ने अपने जयोदय महाकाव्य में सके। आगे अध्ययन का साधन न होने से अपने बड़े भाई के पास कथानक की प्रस्तुति इस ढंग से की है कि वह अत्यन्त रोचक एवं 'गया' चले गये और व्यावसायिक कार्य सीखने लगे। किन्तु उनका हृदयग्राही बन गया है। एक ही पात्र के अनेक पूर्वजन्मों एवञ्च ज्ञानपिपासु मन व्यवसाय में नहीं लगता था, पढ़ने के लिए बेचैन तद्गत कार्यकलापों के वर्णन की दुरूहता को उन्होंने सरस रहता था। एकबार उनका साक्षात्कार किसी समारोह में भाग लेने | काव्यशैली द्वारा दूर करने का सफल प्रयास किया है, जिसमें उन्हें आये स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के छात्रों से हुआ। उन्हें | पूर्ण सफलता मिली है। मुनिश्री का शब्दकोश अत्यन्त समृद्ध है। देखकर किशोर भूरामल की ज्ञानपिपासा उद्दीप्त हो गई और बड़े | उस कोश में से कभी-कभी वे ऐसे शब्द भी निकाल लाते हैं, जो भाई की अनुमति लेकर अध्ययनार्थ बनारस चले गये। वहाँ उन्होंने | कदाचित् आज के पाठक के लिए सुपरिचित नहीं हैं। यथा जैन शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया और शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण | तरस्-गुण, रोक-प्रभा, संहिताय-हितमार्ग, ऊषरटकरेतीला, कर घर लौटे। रसक-चर्मपात्र आदि। उनकी वाणी स्थान-स्थान पर अनुप्रास से स्वावलम्बन सुसज्जित है। कहीं-कहीं तो पदशय्या इस प्रकार की है, कि वाराणसी में विद्यार्थी भूरामल को अपने अध्ययन का खर्च | लगता है एक साथ कई घंटियाँ बजने लगती हों-'अनुभवन्ति उठाने के लिए स्वयं ही अर्थोपर्जन करना पड़ता था। वे सायंकाल | भवन्ति भवान्तकाः, नाथवंशिन इवेन्दुवंशिनः ये कुतोऽपि गंगा के घाटों पर गमछा बेचकर धनोपार्जन करते थे। इसमें उन्हें | परपक्षशंसिनः।' अन्त्यानुप्रास तो मानों उनके लिए काव्यक्रीडा है। किसी संकोच का अनुभव नहीं होता था। किसी श्रीमान् से सहायता काव्य के लगभग हर श्लोक को उसने आलोकित किया है।" की याचना करने की बजाय स्वयं के श्रम द्वारा धनोपार्जन करना | (जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन/प्राक्कथन, पृ.vi) उन्हें अधिक पवित्र और स्वाभिमान के अनुकूल प्रतीत हुआ। यह | शिष्यसंस्कार-कौशल आज के निर्धन विद्यार्थियों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का शिष्यसंस्कारकौशल कितना लोकोत्तर पुरुष ही ऐसे पदचिह्न निर्मित करते हैं, जो अँधेरे में अनूठा था यह उनके शिष्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के भव्य, भटकते लोगों के लिए प्रकाशस्तम्भ बन जाते हैं। लोकोत्तर व्यक्तित्व को ही देखने से पता चल जाता है। ऐसे महाकवित्व आत्मानुशासित, सम्मोहक, नि:स्पृह, ज्ञानगंभीर, प्रखरतपस्वी अध्ययनकाल में विद्यार्थी भूरामल की दृष्टि इस तथ्य पर व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले हाथ निश्चय ही बड़े सधे, मँजे रहे गई कि जैन वाङ्मय में महाकाव्यादि साहित्यिक ग्रन्थों की न्यूनता | होंगे। शिष्य विद्याधर गुरु के पास ज्ञानपिपासा लेकर आता है और है। अतः उन्होंने संकल्प किया कि वे इस न्यूनता को दूर करेंगे। गुरु से ज्ञानदान के लिए प्रार्थना करता है, तब गुरु कहते हैंऔर विद्याध्ययन के बाद घर लौटकर उन्होंने ऐसा कर दिखाया। | "तुम्हारे जैसे कई ब्रह्मचारी मेरे पास आये हैं और सब पढ़कर 4 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36