Book Title: Jinabhashita 2002 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ को व्यर्थ ही समाप्त कर रहा है। भोगि पुण्यफल हो इकइंद्री क्या इसमें लाली। भावार्थ - जब शलाका पुरुषों को कोई शरणदायी नहीं कुतवाली दिनचार वही फिर खुरपा अरु जाली। है, तो हमारी क्या बात है! हमें चाहिये कि सच्चे देव शास्त्र गुरु का मानुष जनम अनेक विपतिमय कहीं न सुख देखा। सहारा लें, जिससे संसारसमुद्र से तिर सकें। पंचम गति सुख मिलै शुभाशुभ को मेटो लेखा॥9॥ संसार भावना अर्थ - देवगति का देव पुण्य के फल को भोगकर यदि एकेन्द्रिय में पैदा हो जावे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जैसे कुछ जनम मरन अरु जरा रोग से सदा दुखी रहता। समय तक सुख साता में राज्य कर लिया, फिर वही खेती-किसानी द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन सहता॥ में खुरपा और जाली हाथ में आ गयी। मनुष्य जनम भी अनेक छेदन भेदन नरक पशु गति बध बँधन सहना। विपत्तिमय है। इसमें कहीं भी सुख देखने में नहीं आता। सभी .रागउदय से दुख सुरगति में कहाँ सुखी रहना ॥8॥ दुःखी दिखाई देते हैं। इसलिए शुभ और अशुभ दोनों क्रियाओं का अर्थ - जन्म, जरा और बुढ़ापा रूपी रोग से यह जीव त्याग कर पंचमगति को प्राप्त हो, तभी सच्चा सुख प्राप्त होगा। हमेशा दुखी रहता है एवं द्रव्यपरावर्तन क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भावार्थ - पंचपरावर्तनरूप संसार में चारों गतियों में भटकता भवपरावर्तन एवं भव परावर्तन में भी दुखों को ही सहन करता है। हुआ यह प्राणी जन्म, जरा एवं मृत्युरूपी रोगों से दुखी है। संसार नरकों में छेदा जाना, भेदा जाना, तिर्यंचों में बध बंधन आदिक | में कहीं भी सुख नहीं है। तथा देवगति में राग के उदय में दुख ही प्राप्त किये हैं, कहीं भी अर्थकर्ता : ब. महेश जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सुख प्राप्त नहीं किया। सांगानेर (जयपुर) कविता जीवन-धन डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' धन की चाह वह भी अकूत, बिना परिश्रम के आज के भौतिकवादी मनुष्य की पहचान है। वह चाहता है धनाभाव को पाटना कर्ज से, छल से, हिंसा से, झूठ से न कि फर्ज़ से यहाँ तक कि चोरी से भी परहेज नहीं है उसे चाहे वह 'कर' की हो या कर से हो। धनासक्ति में वह रूप परिवर्तन करता है देह को सजाता है निर्मम बनता हैअपनों के प्रति, अपने प्रति पुण्य को कोसता है पाप को करता है मतान्ध/मदान्ध भी हो जाता है करुणा रसहीन हो जाती है उसकी छलता है दूसरों को यह भूलकर कि छला जा रहा है स्वयं जुए में दाँव पर दाँव लगाते पाण्डवों की तरह उसे चाहिए हैं सद्गुरु जो बता सकें उसे कि रोक चाह धन की तेरे पास भी तो है-धन जीवन-धन। 26 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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