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भण्डारों से निकालकर उनकी यथायोग्य मरम्मत कर नयी जिल्द । आशा है श्रुतपंचमी के ज्ञानाराधन पर्व को उत्साहपूर्वक चढ़ानी चाहिये। अलमारियों को साफ करें। पुस्तकों को धूप दिखायें। | मनाने की दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्प जाग्रत होगा। निम्न पंक्ति के जहाँ प्रतिदिन स्वाध्याय की परम्परा न हो, वहाँ स्वाध्याय की | साथ लेख को विराम देना चाहूँगा परम्परा चालू की जाय तथा वहाँ युवा पीढ़ी को बैठने, सुनने, "ज्ञान समान न आन जगत में, सुख को कारण"। मनन करने की प्रेरणा दी जाए।
वी. 3/80, भदैनी वाराणसी-221001
चिंतन से श्रेष्ठ विचार प्रकट होते हैं
डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' - उत्साह मनुष्य की भाग्यशीलता का पैमाना है, यह । दुःखी क्यों हैं? यहाँ प्रश्न उठता है कि परमात्मा ने किसी को लोकप्रसिद्ध किंवदन्ती है। उत्साह से कार्य करने वाला सफल | दुःखी और किसी को सुखी बनाया है, यदि हाँ, तो फिर प्रश्न होता है, ऐसा देखने और सुनने में आता है। भाग्य और पुरुषार्थ | उपस्थित होता है कि परमात्मा किसी को सुखी और किसी को पर लोग भिन्न-भिन्न विचार रखते हैं। कुछ लोगों का विचार है दुःखी बनाने के लिये क्या भेदभाव करता है ? यदि नहीं, तो फिर कि भाग्य से ही सब कुछ मिलता है। कुछ लोग इसी कारण आप विचार करें कि व्यक्ति दुःखी क्यों है? इन प्रश्नों पर जीव भाग्य के सहारे बैठे रहते हैं, जबकि पुरुषार्थ पर आस्था रखने | का चिंतन अनवरत चलता रहा और चलता रहेगा, परन्तु यह वाले अनवरत लगन एवं निष्ठा से कार्य कर असंभव को भी | निष्कर्ष सभी स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का संभव बना देते हैं। यह कहा जाता है कि 'भाग्यहीन नर पावत | कर्ता और भोक्ता है। परमात्मा ने सभी जीवों को पुरुषार्थ करने नाही' अर्थात् भाग्यहीन मनुष्य कुछ भी नहीं पाता है। यह कथन | की शक्ति प्रदान की है कोई उसका सदुपयोग करता है, कोई चिंतनीय हैं। चिंतन से श्रेष्ठ विचार प्रकट होते हैं। मनुष्य बुद्धि, | दुरुपयोग करता है। सदुपयोग करने वाला व्यक्ति अच्छे विचार, बल सम्पन्न है, इसीलिए अन्य (दूसरे) प्राणियों से उसकी अलग | अच्छी भावनाएँ रखता है इसलिये उसमें अच्छे गुणों का ही पहचान है। व्यक्ति सिर्फ भोजन के लिए घूमे, ऐसी मानव में | समावेश होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि वह श्रेष्ठ प्रवृत्ति बहुत कम देखने को मिलती है वरन् पशुओं तथा अन्य पूँजी (विचार) से श्रेष्ठ कार्य (पुरुषार्थ) करता है। चिंतन की जीवों में यही (भोजन की आकांक्षा) प्रवृत्ति पाई जाती है।। धारा उसकी निरन्तर चलती है। विवेक जाग्रत अवस्था में रहता आहार, निद्रा, मैथुन (काम और भोग) तथा परिग्रह ये चार | है, इसलिये उसकी बुद्धि नष्ट नहीं होती। इसके विपरीत जो बुरी संज्ञाएँ सामान्य रूप से मनुष्य और पशुओं में समान रूप से पाई | सङ्गति करता है, वह बुरे विचारों को आत्मसात कर निकृष्ट और जाती है, जबकि जिज्ञासा तथा बुद्धि बल मानव में निरन्तर दिखाई। | खोटे (बुरे) कार्य करता है और पतन की ओर उन्मुख हो जाता देता है। जिज्ञासा मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यही | है। विद्यार्थी जीवन की प्रथम पाठशाला में ही कर्मशील बनने जिज्ञासा उसे किसी न किसी कार्य के लिए प्रेरित करती है। की प्रेरणा व्यक्ति को दी जाती है। समस्त धर्म एवं दर्शन तथा अदृश्य तथा दृश्य के प्रति जिज्ञासा के कारण ही व्यक्ति भाग्य की | वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पद्म चरित सहित अपेक्षा पुरुषार्थ पर जोर देता है। पुरुषार्थ कार्य करने की शक्ति है, जितने भी प्राचीन ग्रन्थ हैं, वे भौतिक जीवन में पारलौकिक सुख जबकि भाग्य पलायनवाद का प्रतीक है। भाग्यवाद पर विश्वास की प्राप्ति के लिए किसी न किसी रूप में सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति रखने वाला शंकालु रहता है, जबकि पुरुषार्थी 'आगे बढ़ते तथा सम्यक्चारित्र के धारण करने पर बल देते हैं। वह रहो', की नीति पर चलता है। पुरुषार्थ से कार्य बनते हैं, जबकि सम्यक्चारित्र एक ऐसी प्रक्रिया है जो मोह, क्षोभ से रहित भाग्य से हमें जो व्यवस्था मिलती है उसका तो हम भोग कर होकर क्षमा, मृदुता आदि के माध्यम से आत्मा को उन्नत बनाने सकते हैं, परंतु उसके आगे कुछ भी नहीं है।
के लिये सदैव पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। इसी तरह दैनिक ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता जीवन को सुखी बनाने के लिये भौतिक सुख-सुविधाओं का स्वयं है। इस अमूल्य वाक्य को पढ़कर मुझे अत्यंत संतोष होता | होना भी आवश्यक है। अत: जो व्यक्ति किसी न किसी कार्य में है। मेरी यह धारणा है कि कर्मवाद में विश्वास रखने वाला प्रत्येक | संलग्न रहता है वही सफलता पाता है। सफलता प्राप्ति के लिये व्यक्ति इसे अवश्य स्वीकार करेगा। भाग्य का निर्माता कौन है? | आवश्यक है कि हम जो भी कार्य करें, उत्साह और उमंग से यदि परमात्मा को संसार के सभी जीवों के लिये एक समान | करें। यही भाग्यशीलता का पैमाना है। सुखद जीवन की कल्पना करना चाहिए तो फिर संसार के प्राणी ।
म.दि.जैन हा.से.स्कू ल,
सनावद (म.प्र.)
22 जून 2002 जिनभाषित -
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