Book Title: Jinabhashita 2002 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ 'जिनभाषित' मई, 2002 अंक मिला। नवीन साजसज्जा से मैंने अपनी आलोचना में लिखा था कि "संस्कृत दर्शन परिपूर्ण, धर्ममय, ज्ञानवर्धक लेखों के साथ प्रकाशित पत्रिका के | पाठ" के दसवें पद्य में - सफल सम्पादन हेतु मेरी अनेकानेक बधाइयाँ स्वीकार कीजिये। "जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भूवं चक्रवर्त्यपि। इस पत्रिका का कवरपृष्ठ देखकर ही उस पावन तीर्थक्षेत्र स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितः ॥ के साक्षात्दर्शन हो जाते हैं, मानों उसी क्षेत्र पर बैठे हों। इस इस प्रकार पाठ होना चाहिये, क्योंकि दसवें पद्य में- 'सदा पत्रिका की प्रतीक्षा नया माह शुरु होते ही पूरे परिवार के लोग | मे ऽस्तु' है और अन्तिम पद्य में "प्रतिभासते मे" दिया गया है। करने लग जाते हैं। मैंने पहले कभी इतना आकर्षण किसी अन्य अतः पद्य का अर्थ निम्न प्रकार होगापत्रिका के लिए नहीं देखा। "मैं जैनधर्म से रहित चक्रवर्ती भी नहीं बनना चाहता। पत्रिका का"शंका-समाधान" निश्चय ही हम लोगों को | यदि दरिद्र और दीन दास भी बनें तो जैनधर्म से सहित बनना नई दिशा प्रदान करेगा। यह पत्रिका दिन-रात प्रगति करती रहे, | चाहता हूँ।" इन्हीं शुभकामनाओं के साथ। अतः अर्थ करते समय "अहम्" का कर्ता के रूप में कमल कुमार राँवका ध्यान रखना आवश्यक है। अत: "भूल सुधार" को स्थान दें। महावीर किराना स्टोर, स्टेशन बाजार, रेनवाल - 303603,जयपुर (राज.) प्रो. हीरालाल पांडे शास्त्री 7 लखेरापुरा, भोपाल (म.प्र.) पत्रिका सम्पूर्णत : अच्छी एवं संग्रहणीय है। विशेष रूप आपके द्वारा सम्पादित 'जिनभाषित' के फरवरी-मार्च अंक से इसके सप्रमाण सम्पादकीय लेख पत्रिका की जान हैं। पत्रिका मिलते ही कितनी ही व्यस्तता हो, सम्पादकीय लेख से शुरुआत मिले। पत्रिका में सामग्री का चयन उद्देश्यानुसार किया है। सामग्री करके पूरी पत्रिका एक ही बार में पढ़ने का प्रयास रहता है। प्रेरक, ज्ञानवर्धक है। फरवरी माह का सम्पादकीय समाज के श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद से युक्त संस्था भाग्योदय द्वैधचिंतन के गम्भीर परिणामों का संकेत करता है। हमारे निजी हॉस्पिटल का लेख देखा, किन्तु उसमें मोटापा घटाने के लिए जीवन में जब तक निर्मलता-निष्कपटता का समावेश नहीं होता, लहसुन का प्रयोग बताया गया है, जबकि जैन परिवारों में लहसुन तब तक सभी धार्मिक क्रियाएँ प्रदर्शनमात्र सिद्ध होगी, हो रही हैं ? का प्रयोग नहीं होता है। कथित धर्मात्मा महानुभाव आपकी पीड़ा को समझेंगे, ऐसी आशा अभक्ष्य के प्रयोग की सलाह कृपया न दी जावे, वह भी ऐसे संस्थान से और ऐसी पत्रिका में। कृपया ध्यान देवें। मार्च अंक संग्रहणीय, पठनीय एवं विचारणीय है। बहुत उपेन्द्र नायक विचारोपरान्त इसी अंक की प्रतिक्रिया में पत्र लिखने बैठ गया। रानीपुर (झाँसी) उ.प्र. ब्र. महेश जैन बधाई के पात्र है, जो 'आहारदान की विसंगतियाँ' करीब 7 माह पूर्व आपके द्वारा संपादित 'जिनभाषित' का जैसे विषय को प्रकाश में लाये। आलेख मनोयोगपूर्वक पढ़ा। अपनी (84) आयु तथा पत्रिका की (प्रथम) 1 वर्ष की आयु अतिथि संविभाग व्रत के अंतर्गत श्रावक का साधुजनों के प्रति जो देखकर मात्र 1 वर्ष के लिए सदस्य बना था। कहना न होगा, कई कर्तव्य है, उसकी घोर उपेक्षा सहज ही दृष्टिगोचर हो रही है। पत्र-पत्रिकाएँ (सभी जैन) आती हैं, उनमें से कुछ तो पढ़ी भी अधः कर्म की अवधारणा आहत हुई है। नहीं जातीं, परन्तु इस पत्रिका ने 7 माह में ही एक विशिष्ट रुचि डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल बना दी है। अमलाई पत्रिका में निरन्तर निखार देख रहा हूँ। सम्पादकीय, 'जिनभाषित' पत्रिका बराबर प्राप्त हो रही है। अल्पज्ञान आचार्यवर विद्यासागर जी के संघस्थ मुनिगण के लेख व समाचार एवं कम उम्र के हिसाब से मैं इतना ही कह सकता हूँ कि इस तथा पं. रतनलाल जी बैनाड़ा द्वारा 'जिज्ञासा-समाधान' विशेष पत्रिका में आज के भौतिक युग के अनुरूप समयानुकूल और रुचिकर लगते हैं। प्रेमचन्द रपरिया सारगर्भित तथ्यों का समावेश है। मुद्रण, शब्दों का चयन अतिउत्तम फिरोजाबाद (उ.प्र.) है। 'जिज्ञासा-समाधान' सामान्य जनसाधारण के लिए बहुत ही 'जिनभाषित' का अप्रैल 2002 का अंक मिला। सामग्री | महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी स्तम्भ है। का चयन अत्यंत प्रशंसनीय है। 'भ. महावीर का सन्देश' 'तीर्थंकर पत्रिका निरन्तर प्रगति करते हुए उच्चतम ऊँचाइयों को महावीरः जीवन दर्शन''भ. महावीर की प्रासंगिकता' 'आप नव | प्राप्त करें, इन्हीं भावनाओं के साथ। निर्माण से परेशान है या ध्वंसात्मक विचार से ?' इत्यादि लेख शरद जैन समाज और व्यक्ति को जीवनी शक्ति देने की सामर्थ्य रखते हैं। 47, मारवाडी रोड, भोपाल (म.प्र.) प्रत्येक "काव्य" मनोज्ञ है। -जून 2002 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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