Book Title: Jinabhashita 2002 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ आचार्य ज्ञानसागर जी का हिन्दी साहित्य वर्तमान संदर्भ में डॉ. राजुल जैन (कुण्डलपुर संगोष्ठी में पठित शोधपत्र) भारतीय संस्कृति के इतिहास में संत साहित्यकार का | के औचित्य का प्रतिपादन किया है। मनुष्य का जीवन सदैव से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इन संतों ने जहाँ एक ओर अपनी | संघर्षशील रहा है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल पर जीवन में साधना और तपस्या के बल पर आत्मकल्याण किया है, वहीं | आने वाली विविध प्रकार की बाधाओं पर विजय प्राप्त करता है। दूसरी ओर अज्ञानता के कारण भटके हुए समाज को भी एक ऐसी अकर्मण्यता हमारे जीवन के लिए अभिशाप है और कर्मठता दिशा दी है, जिससे वह अपने जीवन के समस्त कष्ट और दुखों से | जीवन के लिए वरदान है। इस कृति के माध्यम से आचार्य ज्ञानसागर मुक्ति पा सके। मानवीय गुणों के उत्कर्ष की बात कहते हैं। इस पंचमकाल में जैनाचार्यों में महाकवि आचार्य ज्ञानसागर गृहस्थ जीवन में मनुष्य को किस प्रकार अपनी बुद्धिजी ने अपने अपरिमित ज्ञान, भक्ति, करुणा, अहिंसा, काव्य रचना | कौशल और वाणी चातुर्य के द्वारा धर्म का अनुसरण करते हुए और वैराग्य के द्वारा जो अलौकिक आनंद इस धरित्री पर बिखेरा | जीवन के मूलभूत उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहिए, इस बात को था, उससे तत्कालीन समय में अधिकतम लोग चमत्कृत होकर उन्होंने विशेष रूप से इस कृति में रेखांकित करने का प्रयास किया उनके प्रति श्रद्धावनत हुए थे। है। इस पुस्तक के माध्यम से मनुष्य को जीवन जीने का संबल साहित्य को आमतौर पर समाज का दर्पण माना जाता है। प्राप्त होता है। समाज की इकाई के रूप में हम साहित्य के अंतर्गत मनुष्य का | आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित 'ऋषभचरित' नामक अध्ययन करते हैं। यदि हम हिन्दी साहित्य पर दृष्टि डालें तो हमें | कृति में तीर्थंकर ऋषभदेव को कथा नायक बनाकर उनके पूर्वभवों ज्ञात होता है कि साहित्य के केन्द्र में मूलरूप से मानव ही है। का वर्णन किया है। इस कृति का विस्तार सत्रह अध्यायों में हुआ मानवीय मूल्यों के उदात्त स्वरूप और हीनतम भावनाओं का | है। यह पुस्तक अनेक उपदेशों के माध्यम से हमें पवित्र जीवन स्वरूप भी हमें साहित्य में नाना रूपों में देखने को मिलता है। जीने के लिये प्रेरित करती है। दिव्य चरित्रों के द्वारा हमारे अंत:करण साहित्य, मनुष्य की आंतरिक और बाहय प्रवृत्तियों को समग्रता के | में जो पवित्रता का भाव उत्पन्न होता है। साथ अभिव्यंजित करता है। वर्तमान समय में साहित्य में मुख्य | मनुष्य जीवन का श्रेय इस बात पर निर्भर करता है कि वह रूप से खण्डित मूल्यों की चर्चा की जा रही है, क्योंकि मूल्य ही अपने जीवन में सद्गुणों को धारण कर इस अमूल्य जीवन को हमारे जीवन का सही अर्थों में निर्माण करते हैं और उन्हीं की सार्थक बनाए, बस इन्हीं सद्गुणों की चर्चा गुण सुन्दर वृत्तान्त' बदौलत हम अपने साहित्य और संस्कृति पर गौरव और गर्व की नामक कृति में एक व्यक्ति की आत्मकथा के माध्यम से प्रस्तुति अनुभूति कर पाते हैं। आचार्य ज्ञानसागर ने भी अपनी साहित्यिक | की है। उपयोगिता की दृष्टि से निस्संदेह यह कृति काफी महत्त्वपूर्ण कृतियों के माध्यम से उदात्त मूल्यों की चर्चा की है, वहीं संस्कारों | है। पौराणिक परम्परा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि अनेक के माध्यम से व्यक्ति को संस्कारित कर उसके अंत:करण में | योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य जीवन उपलब्ध होता शुचिता को जाग्रत किया है। यह शुचिता ही व्यक्ति के लिए | है। यह मानव पर्याय अमूल्य होने के साथ-साथ अत्यधिक उपयोगी कल्याणपथ का पाथेय बनती है। भी है। इस जीवन की उपयोगिता तभी सच्चे अर्थों में प्रमाणित हो ___ आचार्य ज्ञानसागर जी ने संस्कृत के अनेक महाकाव्यों का | पाती है जब हम इसका उपयोग पारिवारिक परिवेश से बाहर सृजन किया। वहीं हिन्दी में भी अनेक कृतियों की रचना कर | निकलकर दूसरों के लिए करने लगते हैं। परहित का भाव जब समाज को सत्पथ पर अग्रसर होने के लिये प्रेरित किया। यहाँ पर | मनुष्य के जीवन में उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य के अन्दर सच्चे हमारा मुख्य प्रयोजन आचार्य ज्ञानसागर द्वारा रचित हिन्दी साहित्य | अर्थों में मानवता का भाव जाग्रत हो जाता है। की कृतियों को वर्तमान संदर्भ में समीक्षा की दृष्टि से रेखांकित | निश्चित रूप से यह रचना हमें आज के विसंगत परिवेश में करना है। नैतिक जीवन और सदाचार की शिक्षा प्रदान करती है, जो सामयिक आचार्य महाराज की लेखनी से प्रसूत'भाग्यपरीक्षा' उनकी | दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रथम हिन्दी कृति है। उन्होंने इसके माध्यम से संयुक्त परिवारप्रथा | स्वार्थ के संकुचित दायरों में सिमटकर आज का मानव -जून 2002 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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