Book Title: Jinabhashita 2002 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ हिन्दी रूपान्तर है। इसका प्रकाशन पहली बार बाबू विश्वम्भरदास | है, जो हर मोक्षमार्गी के लिये पाथेय की तरह अत्यन्त उपयोगी है। जैन, हिसार के द्वारा 1947 में कराया गया। | आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने इस तरह अपने प्रखर ज्ञान के - आचार्य कुंदकुंद स्वामी के दो अन्य ग्रन्थों अष्टपाहुड और | द्वारा जैन धर्म और दर्शन की ही नहीं, वरन् संस्कृत और हिन्दी नियमसार का पद्यानुवाद भी आचार्य महाराज ने बड़ी सरलता से | साहित्य की श्री वृद्धि में अनुकरणीय योगदान किया है। उनके किया, जिनका प्रकाशन क्रमशः श्रेयोमार्ग और जैन गजट (1956- निष्काम जीवन से व्यक्ति को नैतिक और धार्मिक उत्थान की 57) में हुआ है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी के देवागम स्तोत्र का दिशा मिली है। उनके द्वारा दीक्षित आचार्य विद्यासागर जी मानो पद्यानुवाद भी जैनगजट में प्रकाशित हुआ है। उनकी जीवन्त कृति हैं, जो निरन्तर प्रकाशित होकर प्राणी मात्र को आचार्य कुंद कुंद स्वामी के समयसार ग्रंथ पर आचार्य आत्मप्रकाश दे रहे हैं। जयसेन स्वामी द्वारा लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका का 'विद्यासागर की लहरें' से साभार हिन्दी अनुवाद एवं सारगर्भित भावार्थ आचार्य महाराज ने किया पंचम जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी 14 जून से 16 जून 2002 तक भट्टारक जी की नसियाँ, | जैन व्रत और पर्वो पर अपना आलेख प्रस्तुत किया। जयपुर, में मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्य सागर जी | तीसरे दिन संगोष्ठी के समापन सत्र में प्रथम वक्ता के की प्रेरणा से पाँचवी जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी का आयोजन | रूप में श्री सुरेश जैन, आई.ए.एस., भोपाल द्वारा पर्यावरण किया गया। संरक्षण में जैन सिद्धान्तों की भूमिका पर अपना आलेख प्रस्तुत पाँच सत्रों में विभाजित इस संगोष्ठी के प्रथम सत्र की किया गया। उन्होंने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय पर्यावरण शुरुआत डॉ. अशोक जैन, प्रोफेसर, वनस्पतिशास्त्र, ग्वालियर | संरक्षण में जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का अत्यधिक योगदान द्वारा जो कि इस संगोष्ठी के संयोजक भी थे, की गई। उन्होंने मूर्ति, मंदिर और पुरानी पांडुलिपियों के क्षरण, रोकथाम और समापन सत्र के दूसरे वक्ता प्रो. रतनचन्द्र जैन, भोपाल बचाव पर अपने शोध के परिणामों को प्रस्तुत किया। संपादक 'जिनभाषित' द्वारा 'इन्द्रिय दमन के मनोविज्ञान' पर द्वितीय सत्र में पं. जयकुमार उपाध्ये, नई दिल्ली ने जैनधर्म अपने विचार व्यक्त किये गये। आधुनिक युग में मनोवैज्ञानिक और वास्तु पर अपना आलेख प्रस्तुत किया। मंदिर, मूर्ति, गर्भगृह | फ्रायड ने दमन की आलोचना की है। फ्रायड के अनुसार दमन एवं सामान्य गृहस्थों के आवास गृहों के वास्तु पर चर्चा करते | विकृतियों को जन्म देता है, परन्तु जैन दर्शन के अनुसार इन्द्रिय हुए उन्होंने घंटा आदि आठ मंगल द्रव्यों के वास्तु पर प्रभावों के | दमन हानिकारक नहीं, बल्कि स्वास्थ्यप्रद और शान्तिप्रद है। बारे में विस्तार से बताया। . | मुनि श्री क्षमासागर जी द्वारा संगोष्ठी के प्रत्येक सत्र में द्वितीय दिवस, तीसरे सत्र में पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन, | श्रोताओं की जिज्ञासाओं का समाधान किया गया और जेनेटिक फिरोजाबाद, संपादक, 'जैन गजट' ने वर्तमान समय में सामाजिक | इंजीनियरिंग, जीनोम, क्लोनिंग एवं खाद्य सामग्रियों की मर्यादा विभिन्नताओं और विषमताओं के बीच सामंजस्य की आवश्यकता | के वैज्ञानिक पहलुओं पर महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी दी पर विचार व्यक्त किये। अपने अनुभवशील एवं गहन चिंतन के | गई। आधार पर चार तरह के अनुरागों पर चर्चा करते हुए पं. नरेन्द्र | संगोष्ठी का आयोजन जैन सोशल ग्रुप्स, राजस्थान जैन प्रकाश जी ने उपस्थित जनसमुदाय को सामाजिक एकता के | साहित्य परिषद्, एवं समस्त दिगम्बर जैन महिला मण्डल जयपुर विविध पक्षों पर सोचने के लिए विवश कर दिया। के संयुक्त तत्त्वावधान में किया गया। सभी श्रोताओं का पंजीयन संगोष्ठी के चौथे सत्र में श्री आर.सी.जैन, प्रोफेसर, | कर उन्हें किट प्रदान की गई। श्रोताओं ने समूचे विशलेषण को एम.ए.सी.टी. भोपाल ने चित्रों के द्वारा मोहनजोदड़ो-हड़प्पा गंभीरता से सुनकर उस पर खुले मन से चर्चा की। श्री महावीर सभ्यता के अवशेषों को दिखाया एवं उन अवशेषों में दिगम्बर | जी तीर्थ क्षेत्र एवं भट्टारक जी की नसियाँ, जयपुर के अध्यक्ष श्री मुद्रा होने के प्रमाण प्रस्तुत किये। अवशेषों की लिपि को भी | एन.के.सेठी ने अपने सतत रचनात्मक सहयोग एवं मार्गदर्शन से उन्होंने अनुवादित कर बताया। इसी सत्र में द्वितीय वक्ता के रूप | संगोष्ठी को सफल बनाया। में पं. शीतलचन्द्र जी, प्राचार्य, जैन श्रमण संस्थान, सांगानेर ने | डॉ. निशा जैन, मैत्री समूह, भोपाल 12 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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