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दोहा
सबही प्राणी साता पावे, सुखी बने संसार। महामंत्र नवकार सम, नहिं औषधि जग माय। अन्तर मन में भाव बने हैं, जपूं सदा नवकारजी॥२७।। दृट बा इस पर रखे, सब संकट मिट जाय॥ आज हो गया रोग मक्त मैं, यह अचरज की बात।। (पूर्ववत)
णमोकार में प्रतिपल जपता, श्वास श्वास के साथ जी॥२८॥ चिन्तामणि सम महारत्न है, कल्पवृक्ष तम जान। गिरिराज मुनि ने सुनी वार्ता, हमको दी बतलाय।। मनवांछित फल दाता जग में सुनो लगा कर थानजी॥२३॥ रतनचन्द का अनुभव सुन्दर हमको सीख दिलाय जी॥२९॥ शक्तिशाली महाप्रभावी, महामंत्र नवकार। जैसी हमने सुनी वार्ता, वैसी दी बतलाय। पर इसके संग क्षमा भाव हो, यह इसका आधारजी॥२४॥ भूलचूक जो इसमें होवे, ज्ञानी शुद्ध करायजी॥३०॥ सब जीवो पर मैत्री भाव हो एंसा करो विचार। भीलवाड़ा के मोती भवनमें, इक चालीज के माँय। सबही प्राणी साता पावे यही मंत्र का सारजी॥२५॥ प्रिय शिष्यो ने किया चौमासा, सबको कथा बतायजी॥३१॥ रतनचन्द्र फिर आगे बोले, मैंने क्षमा ली धार। क्षमा माँग ली घर वालों से, फिर माँगी संसारजी॥२६॥