Book Title: Jena Haiye Navkar Tene Karshe Shu Sansar
Author(s): Mahodaysagar
Publisher: Kastur Prakashan Trust

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Page 245
________________ महामन्त्र की महिमा प्रिय सुशिष्य सन्त रत्न पं. श्री उदयचन्दजी म. सा. 'जैनसिद्धांताचार्य' दोहा पन्द्रह लाख रूपये व्यय कीने, अमेरिका में जाय। महामंत्र नवकार की, महिमा अपरम्पार। कुछ महीने आराम मिला फिर, हालत वही हो जाय जी॥११॥ जो ध्यावे शुद्धचित्तसे, हो जावे भवपार॥ चोबीस फरवरी अस्सी का दिन, अन्तिम मुझे बतलाय। (तर्ज : श्री पाल नरेश्वर, समरयो परमेष्टि नवपद प्रेमसे) पानी नहीं गले में उतरे, गला सूजता ही जाय जी॥१२॥ नवकार प्रभावे, पावे जीवन, धन सब आनन्द जी॥ टेर॥ डाक्टर ने कहा बडे पुत्रसे, अब नहि ये बच पाय। जैनधर्म में महा प्रभावी. महामंत्र नवकार। मैंने भी अनुमान लगाया, डाकटर मरण बताय जी॥१३॥ विद्वानों की दृढ़ आस्था, निष्ठा बनी अपार जी॥१॥ __ मैंने मुँह से नली निकाली, औषधि दो फिंकवाय। महामंत्र में शक्ति घणी है, नहीं गुणों का पार। सबको कमरे बाहर कीना, धर्म ध्यान मन माय जी॥१४॥ कई समस्या हल हो जावे, पावे सुख अपार जी॥२॥ दोहा बम्बई में एक साहुकार थे, रतनचन्द था नाम। पूरे श्रधा भाव से, जपन लगा नवकार। उनका अनुभव तुम्हे सुनाऊँ, सुनो लगाकर ध्यान जी॥३॥ औरों का कल्याण हो, सुखी बने संसार॥ धर्म कर्म में नहीं भरोसा, कहता सब बेकार। (पूर्ववत्) मंत्र जाप में समय गंवाये, वे नर मूढ गँवार जी॥४॥ मंत्र जाप यों करते करते, आधी रात बिताय। पत्नी उसकी सरल स्वभावी, सदा जपे नवकार। जोरों से उल्टी हुई मुझको, दस्त साथ में आय जी॥१५॥ पतिदेव को वह समझती, धर्म जगतमें सार जी॥५॥ खून बहुत सा निकला मुख से, मुझे मिला कुछ चैन। सून पचास की सुनो वार्ता, बात एक छिड़ जाय। प्रातःकाल दरवाजा खोला, बीत गई जब रजनी॥१६॥ महामंत्र नवकार जगत में, महत्व रखे कुछ नायजी॥६॥ रतनचंद की बात सनी तो. चमी मेरे मन माँय। घरवालो ने जीवित देखा, अचरज मन में आय। समय देखकर चुप रहा मैं तो बोला, कुछ भी नांय जी।॥७॥ नहीं थी उनको मेरी आशा, जीवित नहीं रह पायजी॥१७।। तीस वर्ष के बाद गया मैं उस ही के घर माँय। अपनी पत्नी से मैं बोला, गरम दूध ले आव। व्यापारी था मोटा वह तो, साहुकार कई आप जी॥८॥ पाव किलो वह दूध ले आई, मैं पी गया उसे उठायजी॥१८॥ दोहा मैंने मन में निश्चय कीना, जब तक जीवन शेष। सब कामों को छोड़कर जपे सदा नवकार। णमोकार का जाप जपूंगा, इसमें शक्ति विशेषजी।।१९।। हुई आस्था धर्म मैं, नहिं देखे व्यापार ।। कुछ दिन बाद में दलिया खाया, स्वस्थ हुआ मुझ गात। (पूर्ववत) डाकटर से मिलने के खातिर, पैदल ही मैं जातजी॥२०॥ मैंने सोचा अपने मन में, किम परिवर्तन आय। जीवित मुझ को देखा उसने, नही हुआ विश्वास। रहस्य खोलकर वही बतावे, बीतक सभी सुनाय॥९॥ कहा उन्होने मुझको एसे, नहीं थी तेरी आशजी॥२१॥ सन् अस्सी में हुई बिमारी, गले में केंसर होय। औषधि लीनी कौन वैद्य की, मुझ को आप बताय। मैंने बहुत इलाज कराया, कारी लगी न कोय जी॥१०॥ अन्य मरीजो को सुख उपजे, एसा उपाय बतायजी॥२२॥

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