Book Title: Jaypayada Nimmitashastra
Author(s): Purvacharya, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 96
________________ [ गाथा ३४५-३४६ ] reciterrori ८१ । स्योपरि वृश्चिक । य र ल व पंचमोऽयं कुंथशब्दो लकारोपरि धनुः । उत्तरतो मकरः । श ष स ह पंचमोऽयं हिंकृतः शब्दः शकारोपरि कुम्भः । क ख ग घ ङ गकारोपरि मीनः । एवं सप्तमावरणम् । अष्टममिदानीं - पूर्वादितः क च छ ज झ ञ । न ट ठ ड ढ ण । च तथदधन । पफ बभम । दयरलव । शष सह । त क ख ग घ ङ । च छ ज झ ञ । एवा ( कम )ष्टमम् । नवमं इदानीं - पूर्वादितः च ट ठ ड ढ ण । यतथदधन । पफबभम । श यरलव । तशषस ह । क क ख ग घ ङ । पच छ ज झ ञ । च ट ठ ड ढ ण । दशममिदानीम् - ट त थ द ध न । शप फबभम । त य र ल व । क श ष स ह न । प क ख ग घ ङ । च च छ [प०२१६, पा० १ ]ज झ अ । यटठडढण । कत थदधन । एकादश (म) मिदानीं - तपफबभम । क य र ल व । पशष सह । यश क ख ग घ ङ । ज च छ ज झ ञ । ञपट ठ ड ढ ण । तथ दुध न । कृप फ ब भ म द्वादश[म] मिदानीम् - प य र ल व । शष सहन । य क ख ग घ ङ । ट च छ ज़ झन । श ट ठ ड ढ ण । तथदधन । क प फ ब भ म । पयरलव । त्रयोदश[म]मिदानींम् - यश ष स ह । द क ख ग घ ङ । शच छ ज झ ञ । त ट ठ ड ढ ण । क त थ द ध न । प फ ब भ म । व य र ल व । य श ष स ह न । चतुर्दश [म] मिदानीम् -शअ, क आ, खइ, गई, घ ङ (उ?), न उ (ऊ?), तए, च ए (ऐ), छ उ (ओ), ज ऊ (औ), झ अं, न अः । क अ, ट आ, ठइ, द (ड) ई, उ, ज (ऊ), षए, व ऐ, ओ, द औ, ध अं, न अः । च[अ], पआ, फइ, बाई, [१०२१६, पा० २] ॥ भ उ, मऊ, य ए, र ऐ, व उ (ओ), ल ऊ (औ), व अं, अः । द अ, [श] आ, [श ] इ, ई, इ उ, ख ज (ऊ), गए, क ऐ, ख उ (ओ), ग अ (औ), घअं, गः (ङ) अः । पंचदश[मं]पूर्वादितः कचटतपयश | ए । ऐख छ ठ थ फरष । आ । इ गजड द ब ल स । ओ । औ घझ ढ धभव ह । ई । अकचटतपयश । ए । आख छठथ फरष । ऐ । इ ग ज ड द ब ल स । ईझ भ वह । औ । एवं पंचदशावर्ण (रण) पर्यन्तोऽयम् ॥ ३४४ ॥ [ १०२१७, पा० १] ze ॥ सर्वतोभद्रः समाप्तः ॥ सर्वतोभद्र इति प्रहरि (ऋ) क्षराश्य क्षरविधानेन येन केनचिद् यथादिस (श) मायातस्यादेस्यो (श्या)क्षराण (णि) च प्राह्यानि । अन्यत्र विधानं इति । मंगलार्थं च इह लिखितमिति ॥ छ ॥ कंठतरिओ वि उरो, उ ( प ? ) रभारं (वं ?) सो न गच्छए मोतुं । अवसेसंति (समंत?) रिओ पुण, आइल्लुमणंतरं पावे ॥ ३४५ ॥ 'अइए उ' एते कंठ्याः । एतेषामन्यतमो[ प० २१७, पा० २] हकारस्ये (स्य) प्रश्नाक्षरादिस्थस्य यदाऽमतः तदा हकार एव लभ्यते । 'अ इ एउ' एतेषां कंठ्यानां अन्यतमादिस्थस्य 'आ ई उ ऊ ऐ औ अं अः' एतेषां अपरिशिष्टस्वराणां अन्यतमो यदाऽग्रतः स्थितमेवाद्यमन्यतरं तदा कंख्या (व्य) स्वरं लभते ॥ ३४५ ॥ उक्कारादिसु एवं, पढमंतरिओ ण एइ परभावं । अभिहर्म (मं) तो पुरओ, आदित्त (ल्ल ? )मणंतरं लभइ ॥ ३४६ ॥ उकारस्य हकारस्य प्रथमस्य प्रभाक्षरादिस्थस्य यथाऽप्रतोऽनंतरं ककारः प्रथमो दृश्यते वदा इकार एव लभ्यते । हकार (रे) ककारेणालिंगिते आदिस्थो [१०२१८, पा० १] इकार एव ठभ्यते । उकारस्य कंठपसंयोगकरणम् ॥ ३४६ ॥ नि० ० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org

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