Book Title: Jainpad Sagar 01 Author(s): Pannalal Baklival Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha View full book textPage 9
________________ २ आदिपुरुष मेरी मास भरोजी अवगुन मेरे माफ करोली. आनंदाश्र बहत लोचनते तातै आनन न्हाया मानंद भयो निरखत मुख जिनचंद आयो प्रभु तोरे दण्यार अब मोहि कारन सार भान मनरी बनी छै जिनराज मान में परम पदारथ पायो, प्रभुचरननचित लायो . इक भरज सुनों साहिब मेरी इष्ट जिन केवली म्हाके इष्टजन केवली, उठोरे सुशानी जीव जिनगुण गावोरे उत्तम नर जिनमतको धारें, सो धावक कहलाते हैं उरण सुराग नाईश सोस जिस आतपत्र विधर ऋ-ए-ऐ-औ : ऋषम तुमले स्वाल मेग, तुही है नाथ जगकेरा ऋषभदेव ऋषिदेव सहाई , एजी मोहि तारिये शांति जिनंद ऐस जैनी मुनिमहाराज सदा उर मो वसो ऐसे प्रभुके गुन कोड कैसे करें ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि है और अवै न कुदेव सुहावै जिन थाके चरननरत जोरी ५१ कानों मिले मोहि श्रीगुरु मुनिवर करि हैं भवदघि पारा हो १४८Page Navigation
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