Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 3
________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १७७ समाधान पाया था। ये और ऐसे उदाहरण पुत्रीवर्ग की धार्मिक बुद्धि-विकास के ज्वलन्त प्रमाण हैं। जैन-बौद्धयुग में कन्याप्रव्रज्या के लिए प्रयत्नशील उत्तरवैदिककालीन प्रभाव के कारण बौद्धयुग में नारी की पराधीनता एवं कष्टापन्न दशा दृष्टिगोचर होती थी। अतः उससे मुक्ति पाने के लिए कन्याएँ धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील होने लगी। विवाहित हो जाने पर तो प्रव्रज्या की इच्छुक स्त्री को पति की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता था । जबकि कन्याएँ अनायास ही माता-पिता प्रादि अभिभावकों से प्रव्रज्या की अनुमति प्राप्त कर लेती थीं। यही कारण था कि बौद्ध और जैन युग में अनेक कन्याओं ने विवाहित न होकर दीक्षा ग्रहण की थी। जनयुग तक स्त्री की अवस्था उन्नत होने से केवल वे ही कन्याएँ साध्वीजीवन व्यतीत करने के लिए उद्यत होती थीं, जिन्हें ज्ञानप्राप्ति की तीव्र लालसा होती थी, या जो अविवाहित रह जाती थीं। पुत्री-जीवन से सम्बद्ध उत्सव ज्ञाताधर्मकथा में पुत्री के जीवन से सम्बन्धित 'वर्षगांठ' महोत्सव तथा चातुर्मासिक स्नान आदि का उल्लेख मिलता है । यद्यपि ऐसे उत्सवों का सम्बन्ध राजघराने की पुत्रियों से दृष्टिगोचर होता है, तथापि पुत्री को प्राप्त सामाजिक मान्यता इन उदाहरणों से ध्वनित होती है।५ कन्याओं की शिक्षा जैनागमों में कन्याओं को कलाचार्य के पास भेजकर शिल्प एवं कला को शिक्षा देने की प्रथा नहीं थी, पुत्र को ही कलाचार्य के पास भेजने के उल्लेख मिलते हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि उस युग में जीविकोपार्जन का कार्य पुरुष ही करते थे, कुलस्त्रियाँ नहीं। उस युग में शिल्प एवं कला से विहीन पुरुष को घर बसाने के अयोग्य समझा जाता था, इसलिए शिल्पादि के शिक्षण का महत्त्व पुरुषों के लिए था, स्त्रियों के लिए नहीं । यद्यपि जैनागमों में थावच्चा, भद्दा अादि कुछ सार्थवाहियों के स्वयं व्यापारादि करने के उल्लेख प्रापवादिक रूप में मिलते हैं, किन्तु कन्याओं को जीविकोपार्जन में सहायक शिल्पादि का शिक्षण देने की प्रथा प्रायः नहीं थी। __ महिलाओं के लिए निर्धारित ६४ कलाओं पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि कन्याओं के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए उन्हें पतिकुल के प्राचार३. भगवतीसूत्र श. १२, उ. २ ४. संयुत्त० ११२८-२९ - ५. तत्थ णं मए....मल्लीए संवच्छर-पडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्रपुव्वे. -नायाधम्मकहानो ११८७३ .."सुबाहुदारियाए कल्ल चाउम्मासिय-मज्जणए भविस्सइ ।-वही शा७६ ६. नायाधम्म १३५१५८, अनुयोग ३।१७८ । ७. ....चोसटुिं महिलागुणे-जम्बूद्वीप० २।३० धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है avtejainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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