Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान मुनि नेमिचन्द्र, शिखरजी नारी-जीवन के मुख्य पाँच रूप नारी-जीवन को हम मुख्यतया पाँच रूपों में विभक्त करके जैन और बौद्धधर्म की परम्परा में उसका क्या कैसा और कितना स्थान था ? इस सम्बन्ध में विश्लेषण करेंगे । नारी-जीवन के मुख्य पाँच रूप ये हैं- ( १ ) पुत्री, (२) वधू, (३) माता, (४) विधवा और (५) भिक्षुणी । १. पुत्री - जीवन पुत्री-जीवन में सुसंस्कारों का बीजारोपण पुत्री या कन्या नारी जीवन की प्रथम अवस्था है । पुत्री के रूप में ही नारी का सामाजिक जीवन में प्रथम प्रवेश होता है । पुत्री - जीवन में ही नारी जीवन की शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों का बीजारोपण होता है । नारी-जीवन को विशिष्ट उन्नत, शिक्षित एवं संस्कारित बनाने की नींव पुत्री - जीवन से ही रखी जाती है, क्योंकि पुत्री के जीवनयापन का ढंग, शिक्षण एवं संस्कार ही नारी जीवन की सभी अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । वैदिक युग में पुत्री की दशा शोचनीय वैदिक युग 'में पुत्री की दशा शोचनीय नहीं थी, किन्तु उसकी प्राप्ति उतनी प्रिय नहीं होती थी, जितनी कि पुत्र की । उत्तरवैदिककाल में पुत्रप्राप्ति को धार्मिक महत्त्व दिया जाने लगा था । अर्थात् यह समझा जाता था कि "पुत्र उत्पन्न होने से मनुष्य पितृऋण से मुक्त होता है तथा पुत्र पुं नामक नरक से पितरों को बचाता है । पितरों की श्रात्माएँ पुत्रों से पिण्ड एवं जल का तर्पण पाकर सुखी एवं सन्तुष्ट होती हैं ।" पुत्र के उक्त धार्मिक महत्त्व से पुत्री उपेक्षा की पात्र बन गई । वाल्मीकि रामायण में कन्या को कष्टदायिनी बताया गया है, ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि पुत्री जन्म होते ही स्वजनों के लिए दुःखकारिणी होती है विवाह के समय धन लेकर सदा के लिए पराई हो जाती है और यौवनावस्था में भी अनेक दोष कर्त्री होती है । जैन-बौद्धयुग में पुत्र और पुत्री के प्रति समानता का भाव किन्तु जैन और बौद्ध दोनों श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि धर्मों में श्रमण संस्कृति के विकास के साथ पुत्री के प्रति घृणासूचक भाव समाप्त होने लगे क्योंकि पुत्र को महत्त्व देने धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Www.jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १७६ वाले कारणों को दोनों ही धर्मों ने मान्यता नहीं दी। जैन और बौद्ध आगमसाहित्य में वैदिक धर्ममान्य षोडश संस्कारों को भी महत्त्व नहीं दिया गया है। धार्मिक उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए दोनों ही धर्मों में गृहस्थावास को छोड़कर अनगारावस्था में साधु और साध्वी दोनों के लिए शुद्ध ब्रह्मचर्य के पालन पर जोर दिया गया है, जबकि वैदिकधर्म में मासिकधर्म प्राप्त कन्या का . विवाह करना अनिवार्य माना जाता था। प्रागैतिहासिक काल में भ० ऋषभदेव के युग में पुत्र और पुत्री में कोई भेदभाव नहीं रखा जाता था । भ० ऋषभदेव ने तो अपनी दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सून्दरी को स्वयं कलाओं की शिक्षा दी थी। बौद्ध और जैन आगमों में धार्मिकदृष्टि से नारी को पुरुष के समकक्ष माना गया । नर एवं नारी दोनों को अनगारावस्था में साधना करने तथा मुक्ति या वीतरागता प्राप्त करने का समान अधिकार दिया गया है। धार्मिक क्षेत्र में नारी को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त होने से पुत्री के जीवन-विकास के लिए वह वरदानरूप सिद्ध हया। पुत्री-वर्ग ने इस नये धार्मिक अधिकार का सर्वाधिक उत्साह के साथ उपयोग किया । में परिवार में माता के आचार-विचार-संस्कारों की विरासत कन्याओं को परिवार में पुत्री अपनी माता के अनुशासन में रहती थी, इस कारण उसे माता के प्राचार-विचार एवं धार्मिक संस्कार विरासत में मिलते थे। जनयुग में स्वतंत्र धार्मिक जीवन के संस्कार साधुवर्ग से यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पारिवारिक जीवन में माताओं द्वारा कन्याओं के हृदय में धार्मिक भावना उत्पन्न करने की प्रथा का उल्लेख बौद्धागमों में पाया जाता है। जैनागमों में नहीं । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जैनागमों के काल तक नारी-जीवन विकसित हो चुका था, उनके प्रति उत्तरवैदिक कालीन व्यवहार प्रायः समाप्त हो चुका था। अतः वे माताओं से धार्मिक शिक्षण न पाकर भी साधु-साध्वियों के पास जा कर जीवन धर्ममय एवं सुख-शान्ति से व्यतीत कर लेती थीं। यही कारण है कि कन्याएँ बाल्यावस्था में धार्मिक पुरुषों-साधु-साध्वियों के उपदेश एवं दर्शन से जो धार्मिक आचार-विचार के संस्कार पाती थीं, अपनी युवावस्था में वे उसी का परिशीलन किया करती थीं। अगर कोई धर्मसम्बन्धी शंका जाग्रत होती तो उसके समाधानार्थ धार्मिक महापुरुषों के पास जाती थीं। 'चुन्दी' नामक राजकुमारी एक कथन के स्पष्टीकरण के लिए ५०० कुमारियों के साथ तथागत बुद्ध के पास गई थी। जयन्ती राजकुमारी ने भगवान महावीर के पास जाकर गम्भीर तात्त्विक एवं धार्मिक शंकाएँ प्रस्तुत करके १. सद्धा भिक्खवे....तादिसा अय्ये भवाहि यादिसा खुज्जुत्तरा च उपासिका.... । अगारस्मा अवगारियं पव्वजसि, तादिसा अय्ये भवाहि यादिसा खेमा च भिक्खणी उप्पल वण्णा, का' ति ।-संयुत्तनिकाय २।१९६-१९७ २. साहं भंते ! भगवंतं पुच्छामि....अंगुत्तरनिकाय २१३०१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १७७ समाधान पाया था। ये और ऐसे उदाहरण पुत्रीवर्ग की धार्मिक बुद्धि-विकास के ज्वलन्त प्रमाण हैं। जैन-बौद्धयुग में कन्याप्रव्रज्या के लिए प्रयत्नशील उत्तरवैदिककालीन प्रभाव के कारण बौद्धयुग में नारी की पराधीनता एवं कष्टापन्न दशा दृष्टिगोचर होती थी। अतः उससे मुक्ति पाने के लिए कन्याएँ धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील होने लगी। विवाहित हो जाने पर तो प्रव्रज्या की इच्छुक स्त्री को पति की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता था । जबकि कन्याएँ अनायास ही माता-पिता प्रादि अभिभावकों से प्रव्रज्या की अनुमति प्राप्त कर लेती थीं। यही कारण था कि बौद्ध और जैन युग में अनेक कन्याओं ने विवाहित न होकर दीक्षा ग्रहण की थी। जनयुग तक स्त्री की अवस्था उन्नत होने से केवल वे ही कन्याएँ साध्वीजीवन व्यतीत करने के लिए उद्यत होती थीं, जिन्हें ज्ञानप्राप्ति की तीव्र लालसा होती थी, या जो अविवाहित रह जाती थीं। पुत्री-जीवन से सम्बद्ध उत्सव ज्ञाताधर्मकथा में पुत्री के जीवन से सम्बन्धित 'वर्षगांठ' महोत्सव तथा चातुर्मासिक स्नान आदि का उल्लेख मिलता है । यद्यपि ऐसे उत्सवों का सम्बन्ध राजघराने की पुत्रियों से दृष्टिगोचर होता है, तथापि पुत्री को प्राप्त सामाजिक मान्यता इन उदाहरणों से ध्वनित होती है।५ कन्याओं की शिक्षा जैनागमों में कन्याओं को कलाचार्य के पास भेजकर शिल्प एवं कला को शिक्षा देने की प्रथा नहीं थी, पुत्र को ही कलाचार्य के पास भेजने के उल्लेख मिलते हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि उस युग में जीविकोपार्जन का कार्य पुरुष ही करते थे, कुलस्त्रियाँ नहीं। उस युग में शिल्प एवं कला से विहीन पुरुष को घर बसाने के अयोग्य समझा जाता था, इसलिए शिल्पादि के शिक्षण का महत्त्व पुरुषों के लिए था, स्त्रियों के लिए नहीं । यद्यपि जैनागमों में थावच्चा, भद्दा अादि कुछ सार्थवाहियों के स्वयं व्यापारादि करने के उल्लेख प्रापवादिक रूप में मिलते हैं, किन्तु कन्याओं को जीविकोपार्जन में सहायक शिल्पादि का शिक्षण देने की प्रथा प्रायः नहीं थी। __ महिलाओं के लिए निर्धारित ६४ कलाओं पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि कन्याओं के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए उन्हें पतिकुल के प्राचार३. भगवतीसूत्र श. १२, उ. २ ४. संयुत्त० ११२८-२९ - ५. तत्थ णं मए....मल्लीए संवच्छर-पडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्रपुव्वे. -नायाधम्मकहानो ११८७३ .."सुबाहुदारियाए कल्ल चाउम्मासिय-मज्जणए भविस्सइ ।-वही शा७६ ६. नायाधम्म १३५१५८, अनुयोग ३।१७८ । ७. ....चोसटुिं महिलागुणे-जम्बूद्वीप० २।३० धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है avtejainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १७८ विचार एवं सदाचरण का शिक्षण दिया जाता था। ऐसे शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु कभी-कभी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा भी दिलाया जाता था। पतिकूल के सभी सदस्यों के प्रति सम्मान एवं प्रात्मीयता प्रदर्शित करने, पति के पोष्य एवं कर्मकरों के प्रति उचित व्यवहार करने तथा पति के आन्तरिक कार्यों में निपुणता एवं पति द्वारा उपाजित धन तथा साधनों की सुरक्षा में दक्षता दिखाने की शिक्षा भी उसे कन्याकाल में दी जाती थी। राजघराने में जाने वाली कन्याओं को पतिकुल के अनुरूप प्रशिक्षण देने हेतु कन्याओं को अन्त:पुर में रखा जाता था। अन्तकृदृशांग सूत्र में सोमा दारिका के उल्लेख से यह स्पष्ट है। २-वधू-जीवन नारी का दूसरा रूप वध-जीवन है। नारी पतिकल में पत्रवध के रूप में प्रायः पदार्पण करती थी। इस अवस्था में पतिकुल में कर्तव्यनिष्ठा और मधुर व्यवहार के द्वारा वह पतिकुल में प्रतिष्ठा अजित करती थी, जिसके लिए परिवार के सभी सदस्यों, विशेषरूप से सास-ससुर एवं पति का सम्मान करना आवश्यक होता था। बौद्धयुग में वधू सास-ससुर के कठोर नियंत्रण में अपना जीवन-यापन करती थी। जब कोई कुलपुत्र प्रव्रज्या लेने की इच्छा व्यक्त करता था, तो उसके माता-पिता उसे समझाते थे, किन्तु परिवार में पुत्रवधु के रूप में रहने वाली उसकी पत्नी उसे रोकने के लिए प्रयास नहीं करती थी, यहाँ तक कि पुत्रवध प्रव्रज्या के लिए जाते समय पति से बात भी नहीं करती थी।' जिस प्रकार पुत्री, गृहपत्नी, विधवा आदि नारीवर्ग को धर्माचरण करने की अनुमति एवं सुविधाएँ मिल जाती थीं, उस प्रकार की अनुमति एवं सुविधाएँ बहुत ही कम पुत्रवधुनों को उपलब्ध होती थीं। अधिकांश वधुनों को सास-ससुर की अनुमति के बिना कार्य करने पर कठोर दण्ड या उपालम्भ भी मिलता था। बौद्धनागमों के अनुसार एक पुत्रवधू ने श्रमण को स्वेच्छा से रोटी दे दी, यह बात सास को मालम हुई तो उसने पुत्रवधु को फटकारा कि तू अविनीत है, श्रमण को रोटी देते समय मुझसे पूछने की इच्छा नहीं हुई आदि । फिर उसने मुसल से पुत्रवधू को इतना पीटा कि बेचारी बहू मर गई । यहाँ तक कि वधू को कोई उत्तम कार्य ८. ....यथाम्हि अनुसिट्टा-थेरीगाथा १५।११४०९ ९ इमा मे भंते ! कुमारियो पतिकुलानि गमिस्संति । प्रोवदतु....अनुसासतु तासं....यं तासं अस्स दीघरत्रं हिताय सुखाया ति ।-अंगुत्तर० २।३०३ १. (क) अथ खो....मातापितरो एतदवोचुं....त्वं खोसि, तात ! ....अम्हाकं एकपुत्तको.... किंपन मयं जीवंतं अनुजानिस्साम, अगारस्या अनगारियं पव्वजाय ? -पारा. प. १७, मझिम. २।२८३ (ख) तए णं तं....अम्मापियरो एवं वयासी....तो पच्छा मव्वइससि–णायाधम्म.११११२८ २. विमा. १॥३१॥३०९-३१३ ३. इतिस्सा सस्सु परिभासि अविनीतासि त्वं वधू । न म संपुच्छितुं इच्छि, समणस्स ददामहे । ततो मे सस्सू कूपिता पहासि, मुसलेन मं । कटंगच्छि अवधि में नासक्खिं जीवितं चिरं ।। -विमा. ११२९२९२-२९३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान/ १७९ भी करना होता तो सास-सुसर की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता था। कभी-कभी वध के रूप में लाई गई नारी से दासी का काम भी लिया जाता था। यही कारण है कि वधू श्वसुर को देख कर भय से कांपती रहती थी। जैनागम में भी इसी तथ्य पर प्रकाश मिलता है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार एक वधू ने अन्यमनस्क होकर ससुर की उपस्थिति में भोजन परोसते समय थोड़ी-सी त्रुटि कर दी थी, जिस पर परपुरुष पर आसक्त होने की शंका से उसे घर से निकाल दिया गया। वस्तुतः ससुराल में पुत्रवधू को प्रातः उठकर सास-ससुर को प्रणाम कर उनके चरणों की रज को मस्तक पर धारण करना, उनके सोने के बाद सोना और उठने से पूर्व उठना, भृत्य के समान उनकी प्राज्ञानों का पालन करना तथा उनके साथ मधुर भाषण एवं आचरण करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त पुत्रवधू से यह भी अपेक्षा रखी जाती थी कि सास-ससुर के जीवनकाल में परिवार के सभी सदस्यों के प्रति स्वामित्व-प्रदर्शन की भावना का पूर्णतया त्याग कर यथायोग्य सम्मान प्रदर्शित करे। यह उसकी कर्तव्यनिष्ठा और स्नेहप्राप्ति का परिचायक था । ऋषिदासी ने इसी प्रकार का आचरण करके ससुर के हृदय को जीत लिया था। इस कारण पुत्र के हठ के कारण ऋषिदासी का ससूर उसे उसके पीहर में छोड़ते समय बड़ा दुःखी होता था। कुछ पुत्रवधुएँ ससुर के संरक्षण में बिना किसी बाधा के जीवनयापन कर लेती थीं। जैनागम में स्त्रियों के भेदों में श्वसुरकूल से रक्षित स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है। सासससुर की उपस्थिति में पुत्रवधू अपने पति द्वारा जुए के दाव पर लगाई गई हो या प्रताड़ित करके घर से निकाल दी गई हो, ऐसे उदाहरण प्रायः नहीं मिलते। बल्कि कभी-कभी ससुर अपने पुत्र के माध्यम से पुत्रवधुनों को जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ प्रीतिदान के रूप में दिया करता था। जैनागम में ऐसा उल्लेख मिलता है।'' ४. तुम्हं न्विदं इस्सरियं अथो मम, इतिस्सा सस्सु परिभासते मम । वही ५. पाय्यो इमं कुमारिकं दासिभोगेन भुजित्थ...गच्छ....त्वं न मयं तं जानामा ति । -वही, प. १९६-१९७ ६. सुजिसा ससुरं दिस्वा संविज्जति संवेगं प्रापज्जति ।-मज्झिम. १२२३७ ७. (क) सूत्रकृतांग ११४।१।१५ (ख) सू. टी. भा. २, पृ. १२८ ८. (क) यस्स वो माता-पितरो भत्तुनो....तस्स पुन्वट्ठा यिनियो पच्छानिपातिनियो किंकार पहिस्साविनियो मनापचारिनियो पियवादिनियो.... -अंगुत्तर० २।२०३ (ख) या मय्ह सामिकस्स भगिनियो भातुनो परिजनो वा । तमेकवरक पि दिस्वा, उन्बिग्गा आसनं देमि ।। -थेरीगाथा. १५।२।४१. .९. तं मे पितुघरं पटिवसिंसु, विमना दुखेन अधिभूता । पुत्तमनुरक्ख्माना, जिताम्हसे रूपिनि लक्खि ॥ -थेरीगाथा १५॥१॥४२१ १०. तं जहा-अंतो....ससुरकुलरक्खियायो। -ौपपातिक सू. १६७ ११. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइदाणं दलयंति....तए णं मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए....परिभाएउं दलयइ। -नायाधम्मकहा शश२४ धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १८० एक परिवार में एक से अधिक पुत्रवधुएँ होने पर उनके कार्यों का विभाजन ज्येष्ठत्व के आधार पर न होकर बुद्धि के आधार पर होने के उदाहरण जैनागम 'नायाधम्मकहा' में मिलते हैं । उझिया भक्खिया, रक्खिया और रोहिणी की कथा इस पर प्रकाश डालती है। १२ पुत्रवधू गृहपत्नी के रूप में । पुत्रवधू सास-ससुर के दिवंगत हो जाने के पश्चात् अथवा कभी-कभी पुत्र-पौत्रादि हो जाने पर 'गृहपत्नी' के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ करती थी। जनयुग और बौद्ध युग में गृहपत्नी को पति के समान धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। 3 गृहस्थावस्था में जिस प्रकार पुरुष को उपासक या श्रावक बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था, उसी प्रकार नारी को भी उपासिका या श्राविका बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था। बुद्ध ने सद्गुणों से सम्पन्न गहपत्नी को सामाजिक दष्टि से श्रेष्ठ बतलाया।१४ पत्नी के हित का ध्यान रखकर कार्य करने वाले पुरुष को सत्पुरूष बतलाया गया है।'५ फलतः गृहपत्नी का बौद्धयुग में पुन: व्यक्तित्व विकसित होने लगा। वह समाज में सम्मानित समझी जाने लगी। घर की संचालिका बनकर घर में नियम-संयम का पालन करना-करवाना उसका प्रमुख कार्य हो गया। वह पति की हितचिन्तिका एवं सर्वश्रेष्ठ मित्र मानी जाने लगी।" वह पति के द्वारा अजित सम्पत्ति की संरक्षिका भी बन गई । यदि पति नैतिकता एवं धर्म के विरुद्ध कार्य करता तो गृहपत्नी रूठ भी जाती थी और नीति-धर्म-विरुद्ध कार्य न करने को बाध्य कर देती थी।१७ अत: गहपत्नी का कर्तव्य थापति के सम्मानित व्यक्तियों का सम्मान करना, पाभ्यन्तरिक कार्यों में दक्षता प्राप्त करना, परिवार के सदस्यों का उचित ध्यान रखना तथा धन-धान्यादि का रक्षण करना प्रादि । १२. जे?....उज्झिइयं....कुलघरस्स छारुज्झियं....ठावेइ, भोगवइया....महाणसिणि ठावेइ.... रक्खिइयाए....भंडागारिणि ठवेइ, रोहिणीयं....बहूसु कज्जेसु....पमाणभूयं ठावेइ । -नाया. २०७।६८ १३. (क) तएणं सा सिवानंदा....समणोवासिया जाया....--उपासकदशांग. १६२ (ख) ता लोके पढम उपासिका अहेस ....-महावग्ग. पृ. २१ १४. इत्थी पि हि एकच्चिया, सेय्या पोस जनाधिप ! मेधाविनी सीलवती सस्सुदेवा पतिव्बता ।। तस्सा यो जायति फोसो, सूरो होति दिसपत्ति । तादिसा सुभगिया पुत्तो। रज्जपि अनुसासती ति ।-संयुत्तनिकाय ११८५ १५. सप्पुरिसो""पुत्तदारस्स प्रत्थाय हिताय सुखाय होता है।-वही २।३१२ १६. पुनावत्थु मनुस्सानं भरिया च परमो सखा ।---संयुत्त० १।३५ १७. (क) तएणं सा भद्दा धणं सत्थवाह नो पाढाई""तुसिणिया परम्मुही संचिट्ठह । नाया० ११२।४६ (ख) तो णं तुब्भे मम एयमट्ठ परिकहेह; जा णं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करेमि । -निरयावलिका० शश२६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८१ अतः ऐसी सद्गृहिणी के प्रति पति का भी कर्त्तव्य था, कि वह परस्त्री गमन न करके, तथा ऐश्वर्य एवं अलंकारादि सामग्री प्रदान करके पत्नी को सन्तुष्ट एवं सम्मानित करे। १८ पतिकुल में प्राप्त सम्मान एवं स्वतन्त्रता के कारण गृहपत्नियों के स्वभाव एवं प्राचरण में विभिन्नता भा गई। बौद्ध आगमों में स्वभाव की दृष्टि से पत्नी सात प्रकार की बताई गई है– (१) वधकसमा ( पति की हत्या के लिए उत्सुक, परपुरुषगामिनी दुष्टचित्ता) (२) चोरसमा ( पति के धन-धान्यादि चुराने छिपाने वाली ) (३) मासमा ( पति के सेवकों के प्रति प्रभुत्व प्रदर्शनकर्त्री, आलसी एवं लालची), (४) मातृसमा ( प्रात्मीयता पूर्वक रक्षा करने वाली), (५) भगिनी समा ( गौरवशील, लज्जावती, पति की इच्छा के अनुरूप प्राचरणकर्त्री), (६) सखी - समा ( पति को देखकर प्रसन्न रहने तथा सखीतम व्यवहार करने वाली) एवं (७) दासी - समा ( दासी के अनुरूप आचरणकर्त्री, पति के कटुतम व्यवहार को भी शान्ति से सहन करने वाली ) अंगुत्तरनिकाय में सुजाता नामक कुलवधू के असंयत आचरण को सुधारने की दृष्टि से उक्त भेदों को बताया गया है। सुजाता ने अन्त में दासीसमा बन कर रहने का निश्चय किया था । १० ऐसा प्रतीत होता है, बौद्धयुग में पराधीनता एवं हीनता की भावना से मुक्ति मिलने पर कतिपय गृहपत्नियाँ स्वच्छन्द बन गई, पति का वध करने को उत्सुक हो गई। परन्तु जैनयुग तक गृहपत्नियों की ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति समाप्तप्रायः हो गई। जैनागमों में स्वच्छन्दाचरण करने वाली पत्नी के सम्बन्ध में बहुत ही कम उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ- महाशतक श्रावक की पत्नी रेवती ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सौतों की हत्या करके उनकी सम्पत्ति पर अपना कब्जा कर लिया और पति की इच्छा के खिलाफ पापाचरण से युक्त जीवन प्रारम्भ कर दिया। रेवती के इस दुष्टाचरण के पीछे उसकी इच्छा पति के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगने की थी। उसने अपने पति को मारने था उसका बुरा करने का प्रयास नहीं किया। फिर भी रेवती के उसे जब शाप दिया तो वह भयभीत हो उठी । २१ किन्तु ऐसा उदाहरण अपवाद रूप है । दुष्ट आचरण से क्रुद्ध होकर पति ने 1 १८. ये तु भत्तु गुरुनो भविस्संति ते सक्करिस्ताम ये ग्रमंतराकम्ता तत्थ दक्खा भविस्साम यो प्रब्भंतरो अंतोजनो तेसं जानिस्सामये धनं ते प्रारविखरण गुत्तिया संपदिस्साम । अंगुत्तर १।३०३ ३०४ १९. दधकसमा दासीसमा इमा सत्त पुरिसस्स भारियाम्रो। अंगुत्तर० ३।२३३ २०. अंगुत्तरनिकाय ३४२२५ २१. (क) तए णं सा रेवईछ सवत्तीयो सत्यप्यद्मोगेण उवेइछ सवत्तीयो विसप्पयोगेण उद्वेइ''''तासि सवत्तीर्ण हिरण्णकोडि सयमेव पडिवज्जइ । .... महासवएणं सद्धि उरालाई भोगाभोगाई भुंजमाणी विहरइ । — उपा० ८।२३५ (ख) रूढं णं मम महासयएन नज्जइ णं ग्रहं केणवि कुमारेणं मारिज्जस्सामि ति कट्टु भीया ... भिवाइ उपा० ८।२५२ धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १८२ जैनागमों में अधिकांश उदाहरण पति के प्रति पत्नी के विनम्र, श्राज्ञाकारिणी होने के मिलते हैं। आशय यह है कि जैनयुगीन गृहपत्नी में स्वतंत्रता के साथ-साथ शालीनता भी प्रा गई थी। फिर भी पत्नी पर पति का प्रायः पूर्ण प्रभुत्व रहता था । आगमकालीन समाज में पत्नी पति की निजी सम्पत्ति (परिग्रह) के रूप में मानी जाती थी । यही कारण है कि पत्नी अपने पति के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकती थी । कोई पत्नी दुराचारिणी होती तो पति उसे मार भी डालता था । कभी-कभी तो बलात्कार का शिकार बनी हुई निर्दोष पत्नी को भी परपुरुष से दूषित होने के कारण मार डाला जाता था । २२ पति पर पत्नी का प्रभुत्व 1 परन्तु श्रागमों में पति पर पत्नी के प्रभुत्व की चर्चा भी की गई है। रूप, भोग, ज्ञाति, पुत्र, एवं शीलबल से युक्त होती थी । २३ तरुण पत्नी भी प्रभुत्व करती थी । राजा श्रोक्काक ने अपनी युवा पत्नी के बहकावे में पुत्र-पुत्रियों को देशनिकाला दे दिया था । २४ ऐसा प्रतीत पत्नी का प्रभुत्व होना पत्नी के लिए गौरवसूचक माना जाता था अपने पति को अनुकूल बनाने या वश में करने के लिए विद्या, मन्त्र, का भी प्रयोग करती थीं । होता है । दाम्पत्य जीवन दाम्पत्य-जीवन की सुदृढ़ता के लिए पति का प्रतिक्रमण न करना पत्नी के लिए आवश्यक होता था । २५ नकुलपिता को मरणशय्या पर व्याकुल देखकर उसकी पत्नी ने जब विश्वास दिलाया कि वह मरणोपरान्त भी उसका अतिक्रमण नहीं करेगी । फलतः नकुलपिता पत्नी से आश्वस्त होकर स्वस्थ हो गया । २६ कुलीन दम्पती के कार्यों को देख कर यही अनुमान होता था कि वे केवल शरीर से भिन्न किन्तु पारिवारिक प्राचार - विचारों से अभिन्न थे । कभी-कभी पति-पत्नी में धार्मिक मतभेद के कारण मनमुटाव भी उत्पन्न हो जाता था । २२. ( क ) मय्हं पजापति प्रतिचरति तं घातेस्सामो ति । जानाही ति । पाचि० पृ० ३०१ (ख) तरणं छ गोट्ठिल्ला पुरिसा बंधुमईए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति ...अज्जुणए छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे विहरइ । ऐसी पत्नी, अपने अपने वृद्ध पति पर आकर प्रथम पत्नी के कि उस युग में पति पर उस युग में कई पत्नियाँ चूर्ण, योग, औषध आदि .. " -- अन्तकृद्० ६।१०४-१०६ २३. पंचहि बलेहिं समन्नागतो मातुगामो सामिकं प्रभिभुय्य वत्तति । संयुक्त० ३।२१९ २४. भूतपुव्वं अम्बट्ट, राजा श्रोक्काको जेट्ठकुमारे रट्ठस्मा पब्बाजेसि । - दीघ० ११८० २५. ( क ) ठानानि दुल्लभानि अकतपुञ्जन मातुगामेन सामिकं प्रभिभुय्य वत्तेय्यं । — संयुक्त० ३।२२१ (ख) नं प्रत्थियाइं मे अज्जाश्रो ! केइ कहिंचि चुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा हिउड्डाणे गुलिया वा श्रोसही वा इट्ठा भवेज्जामि । -नायाधम्म. १ । १४ । १०४ २६. सिया खो पन ते, गहपति, एवमस्स — नकुलमाता गहपतानी ममच्चयेन प्रज्ञ ं घरं गमिस्सतीति, न खोपनेतं एवं दट्ठव्वं । -अंगुत्तर० ३।१७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८३ जैन-बौद्धयुग धार्मिक क्रान्ति का युग था । अतः उस समय धार्मिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करते थे । सपत्नीकृत उपद्रव आगमकालीन समाज में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी । उस समय राजाओं और धनाढ्यों की तो अनेक पत्नियाँ होती ही थीं, साधारण व्यक्ति भी पत्नी के वन्ध्या होने पर दूसरी पत्नी रख लेता था । फलतः इन सपत्नियों के कारण परिवार उपद्रवों का स्थल बन जाता था । पति की प्रिय पत्नी अपनी प्रहितैषी सौतों के विद्वेष के कारण सदैव संतप्त एवं पीड़ित रहा करती थी । वन्ध्या पत्नी प्रायः अपनी गर्भवती सौत के गर्भ को नष्ट करने को उद्यत रहती थी। इसके विपरीत पति की प्रिय पत्नी भी अपनी सौतों का नाश करने का प्रयास करती थी । रेवती ने इसी दुर्भावना से अपनी १२ सौतों का सफाया कर दिया था । सिंहसेन की ५०० रानियाँ थीं, जिनमें श्यामा उसकी सर्वाधिक प्रिय थी। फलतः उपेक्षित रानियों की माताओं ने अपनी पुत्रियों की दयनीय दशा दूर करने हेतु श्यामा को मार डालने की योजना बनाई । श्यामा को मालूम पड़ने पर उसने अपने पर आसक्त सिंहसेन को बहका कर अन्य रानियों की मातानों को मरवा डाला था । इन कारणों से सपत्नी का न होना पत्नी के लिए सौभाग्य एवं पुण्यफल माना जाता था । २७ गृहपत्नी के अच्छे-बुरे कार्यों की समाज में प्रतिक्रिया गृहपत्नी के अच्छे या बुरे कार्यों की प्रतिक्रिया केवल परिवार तक सीमित न रह कर समाज में भी होती थी । वैदेहिका नाम की गृहपत्नी के सद्व्यवहार से समाज में उसकी कीर्ति फैल गई, उसके गुणों की चर्चा होने लगी, किन्तु जब उसने अपने दुर्व्यवहार का परिचय दिया तो समाज में उसकी अपकीर्ति होने लगी । नागश्री ब्राह्मणी द्वारा मुनिवर धर्मरुचि को दिये गये कडवे एवं जहरीले तुम्बे के श्राहार से धर्मरुचि मुनि का देहावसान हो गया तो समाज में उसकी अपकीर्ति बढ़ गई। समाज में जिसकी अपकीर्ति व्याप्त हो जाती थी, उस पत्नी को कभी-कभी तो मार-पीट कर घर से निकाल दिया जाता था । १८ २७. ( क ) उपासकदशा० ८।२३५ (ख) एवं खलु सामी सिंहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए ४ म्हं धूयाओ तो आढाइ । तं सेयं खलु अम्हं सामं देवि जीवियाश्रो ववरोवित्तए । तएणं "सीहरन्ना आलीवियाई ...कालधम्मुणा संजुत्ताइं । - विवागसुयं ० १।९।१६५ - १७१ २८. ( क ) वेदेहिकाय, भिक्खवे, गृहपतानिया एवं कल्याणो कित्तिसद्दो प्रब्भुगतो सोरता वेदेहिका गृहपतानी निवाता उवसंता । मज्झिमनिकाय० १।१६७ (ख) चंडी वेदेहिका गहपतानी वही, १।१६९ (ग) बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ - धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाश्रो ववरोविए । 'तएणं तं माहणा तज्जिता तालित्ता सयाओ गिहाश्रो निच्छुभंति । -नायाधम्म० १।१६।११३ ..... ਰਗੀ ਟੀ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jalnelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड / १८४ गृहपत्नी का वैयक्तिक धन प्राचीनकाल में कुछ सम्पत्ति पत्नी को पति की ओर से मिलती थी, कुछ सम्पत्ति उसे उसके पीहर से स्त्रीधन के रूप में मिलती थी। यह उसकी निजी सम्पत्ति कहलाती थी । २४ जिसमें से वह अपनी इच्छानुसार खर्च कर सकतो या किसी को पुरस्कारस्वरूप दे सकती थी। जीवक ने जब सेठ की पत्नी को स्वस्थ कर दिया तो उस सेठ की पत्नी ने उसे चार हजार रुपये पुरस्कार में दिये थे पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी निजी सम्पत्ति पर प्रायः उसके पुत्र का अधिकार हो जाता था । ३ मातृ-जीवन माता सभी धर्मों, दर्शनों और समाजों में आदरास्पद रही है। इसका कारण यह है कि माता अपने पुत्र-पुत्री के लिए जो कष्ट सहती है, जो त्याग करती है, जो वात्सल्य वर्षां करती है, हितशिक्षण और संस्कार देती है, वह अन्य व्यक्ति के लिए अशक्य है। जन्म लेने से पूर्व और पश्चात् सन्तान का सबसे अधिक सम्बन्ध माता से ही रहता है । इसीलिए इसे स्वर्ग से भी बढ़कर माना है । अत: मातृजीवन ही नारी का सबसे गौरवपूर्ण जीवन है । मातृ-भक्ति बौद्ध और जैन आगमों में माता-पिता के उपकारों से उऋण होना अत्यन्त दुष्कर बताया गया है। बौद्धागमों में माता-पिता का पोषण करना, उनको प्रसन्न रखना, पुण्यकारक कृत्य माना गया है। ऐसे व्यक्ति को पण्डित एवं सत्पुरुष कहा गया है। उन फुलों को उत्तम माना जाता था, जिनमें माता का सम्मान होता था । जो समर्थ होने पर भी माता-पिता का पोषण नहीं करता, उसे वृषल ( शूद्र) माना गया है। जनयुग में माता-पिता 3 २९. (क) इदं ते तात रट्ठपाल । मत्तिकं धनं प्रञ्ञ पेत्तिकं । । - मज्झिम० २२८८ (ख) तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरिया मट्टहिरण्यकोडीश्री''। - उपा० ८।२३० (ग) महावमा पृ० २५९ १. (क) द्विन्नाहं भिक्खये, न सुप्पतिकारं वदामि मातुक पितुक अंगुत्तर० (ख) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । (ग) तं भुजाहि ताव जाया ! विपुले "जाव ताव वयं जीवामो तम्रो पच्छा पन्वइस्तंसि ।नाया० १।१।२५ २. (क) धम्मेन भिक्खं परियेसित्वा, मातापितरो पोसेति, बहुसो पुञ्ञ पसवतीति । संयुक्त०] १।१८१ (ख) द्वीसु, भिक्खवे, सम्मापटिपज्जमानो पंडितो वियत्तो सप्पुरिसो होति मातरि च पितरि च । अंगुत्तर० ११०३ (ग) सानेय्यानि तानि कुलानि येसं पुता मातापितरो यज्भागारे पूजिता होंति । -बही० १।२२ ३. यो मातरं पितरं वा जिष्णकं गतयोग्यनं । पहु संतो न भरति तं जया बसलो इति । सुत्तनिपात ० १।७।१२४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८५ की सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था। श्रमण भगवान महावीर ने गर्भ में हलनचलन करने से माता को कष्ट होगा, जान कर हलन-चलन बंद कर दिया था, किन्तु इससे माता को अपार चिन्ता हुई, जान कर पुनः हिलने-डुलने लगे । माता के उपकारों को स्मरण कर उन्होंने गर्भावस्था में ही यह प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। यह है मातृभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण । ___तत्कालीन समाज में यह मान्यता प्रचलित थी कि माता-पिता की सेवा करने से इहलोक और परलोक में शान्ति मिलती है। माता का अद्भुत स्नेह : पुत्ररक्षण ही उसका सर्वस्व जैनागमों में माता के स्नेह का हृदयस्पर्शी वर्णन मिलता है। जब कोई पुत्र प्रव्रज्या लेने की बात कहता था, कि उसे सुनते ही माता मूच्छित हो जाती थी, चैतन्यावस्था में आने पर वह विभिन्न उपायों से समझा-बुझाकर उसे प्रव्रज्या लेने से रोकने का प्रयास करती थी।५ माता ही परिवार में ऐसी सदस्या थी, जिसे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय अपने पुत्र का जीवन था। माता अपने जीवन की बाजी लगाकर भी पुत्र की रक्षा करती थी, फिर भले ही उसका पुत्र हत्यारा, अत्याचारी, दुष्ट एवं अनाचारी हो । जनयुगीन माता की यही इच्छा रहती थी कि वह अपने जीवन का उपयोग अपने पुत्र के संरक्षण में करे । जैनागमों में मातृ-सेवा का अनुपम उदाहरण यद्यपि बौद्ध-आगमों में मातृ-सेवा का उपदेश तो मिलता है, किन्तु मातृ-सेवा के विशद एवं प्रयोगात्मक उदाहरण नहीं मिलते; जबकि जैनागम 'विवागसुयं' में पुष्यनन्दी राजा के द्वारा की गई मात सेवा का वर्णन मिलता है कि वह अपनी माता के पास जाकर चरण-वन्दन करता था, तत्पश्चात् शतपाक-सहस्रपाक तैलों से उसके शरीर की मालिश करके सुगन्धित मिट्टी से उबटन कर नहलाता था। फिर उसे भोजन कराता था। माता के भोजन कर लेने के बाद स्वयं भोजन करता था। माता की सम्पत्ति एवं प्रभुता बौद्धागमों में माता की सम्पत्ति का उल्लेख है जो उसके पीहर से उसे प्राप्त होती थी। जिसे वह स्वेच्छा से व्यय कर सकती थी। गृहस्वामिनी भी वही हो सकती थी, जो किसी बच्चे की मां हो। तभी उसे परिवार की प्रभुता प्राप्त होती थी। सन्तानहीन पत्नी को गृहस्वामिनी नहीं माना जाता था। ४. (क) कल्पसूत्र ___ (ख) मायरं पियरं पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय ! जे पालेति य मायरं । सूयगडांग० ११३।२४ ५. तएणं सा धारिणी देवी कोट्रिमतलं सिसव्वंगेहिं धसत्ति पडिया"| --नायाधम्म० ११२७ ६. (क) खुद्दक० ९१७ धम्मो दीवो (ख) थेरगाथा, पृ० २०६-२०७ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। wwwjametrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १८६ मातृवध : घोर निन्दनीय कृत्य बौद्ध-पागमों में मातृ-वध-सम्बन्धी अनेक उल्लेख मिलते हैं। माता का वध जैसा काला कर्म करने वाला कृष्णफल का भागी, घोरपापी माना गया है। मातृवध करने वाले को भिक्षसंघ में प्रविष्ट नहीं किया जाता था। बौद्ध-युग में इस प्रकार के निकृष्ट कर्म का . अस्तित्व था, जबकि जैनयुग में मातृवध जैसा दारुण पाप इस मात्रा में नहीं होता था। धार्मिक पुरुषों को उसकी निन्दा करने का अवकाश मिले । जैनागमों में मात-वध सम्बन्धी उल्लेखों का प्रभाव सा है। यद्यपि विरक्तात्मा पुत्र माता-पिता की इच्छा की परवाह न करके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता था, लेकिन जीवित हों तो माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था । इसलिए कहा जा सकता है कि जैनयुग में माता की सेवा को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। मातृत्व-लालसा जैनयुगीन नारियों में मातृत्व-प्राप्ति के हेतु सुलसा आदि द्वारा किये गए प्रयत्नों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। ४. विधवा-जीवन वैधव्यजीवन व्यावहारिक दृष्टि से तो अमंगलसूचक माना जाता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से रत्नत्रय की एवं मोक्षरूप लक्ष्य की प्राप्ति के हेतु साधना-पाराधना के लिए वह महत्त्वपूर्ण स्वर्णकाल है। विधवाओं की स्थिति दयनीय या अदयनीय ? यद्यपि वैदिक और उत्तरवैदिककाल में समाज में विधवाओं की स्थिति शोचनीय, दयनीय एवं अमंगलसूचक हो गई थी। उनका विवाहादि उत्सवों या समारोहों में उपस्थित होना, निषिद्ध था। उनकी सम्पत्ति का अधिकार भी नगण्य था। विशेषतः पुत्रहीन विधवा को वैधानिकरूप से पति के धन पर अधिकार नहीं था।" बौद्धयुग में जातक में वैधव्यजीवन के घोर कष्टों की चर्चा की गई है ।१२ ७. ""पूसनंदी राया सिरीए देवीए मायाभत्तए यावि होत्था""देवीए सयपाग-सहस्सयागेहि तेल्लेहि अभिगावेइ"तएणं पच्छा व्हाइ वा भंजइ वा"। -विवागसुयं० २९।१८१ ८. (क) एकच्चयेन माता जीविता वीरो पिता होति.''इदं वुच्चति कम कण्हं कण्ह विपाकं । -अंगुत्तर० २।२५० (ख) मातरं पितरं हत्वा""अनीघो याति ब्राह्मणो।-धम्मपद २११२९४ (ग) मातुघातको, भिक्खवे ! अनुपसंपन्नो, न उपसंपादेतब्बो 'नासेतब्बो ति । -महावग्ग पृ० ९१ अन्तकृद्ददशांगसूत्र १०. .."नगरस्स बहिया नागाणि य भूयाणि य"महरिहं पुप्फचणियं करेत्ता'""दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं तुह्म.."अणुवड्ढे मि।-नाया० ११११४० तथा विवाग-११७।१३८ ११. धर्म शास्त्र का इतिहास भा० १, पृ० ३३०-३३२ १२. जातक २२।५४७।१८३६-३९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८७ परन्तु बहुत सम्भव है, जातक का यह कथन वैदिकधर्म-परम्परा से प्रभावित हो । वस्तुतः बौद्ध और जैन युग में विधवा नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय नहीं थी।१३ सामाजिक दृष्टि से उसे बुरा या अमंगलसूचक नहीं माना जाता था। विधवा महिलाएं भी सधवानों के समान परिवार एवं समाज में सभी अधिकारों का उपभोग करती थीं। रंगीन वस्त्रों, आभूषणों का उपयोग, मांगलिक कार्यों में प्रवेश या बालों को कटवा लेने आदि का प्रयोग विधवाएँ नहीं करती थीं, ऐसा उल्लेख जैनशास्त्रों में कहीं नहीं मिलता । यह बात दूसरी है कि विधवा नारी स्वयं अपूर्णता का अनुभव करे या स्वेच्छा से प्रसाधन या शृगार में रुचि न ले। थावच्च ने पुत्र के विवाह जैसे मांगलिक कार्य में मुख्यरूप से भाग लिया था।१४ इसी प्रकार रदपाल तथा सुदिन्न के प्रत्रजित हो जाने पर भी उनकी पत्नियाँ अलंकारादि का उपयोग करती थीं।१५ विधवा किसे कहें ? जैनागमों में प्राप्त बालविधवा एवं मृतपतिका नामक भेदों से यही भाव व्यक्त होता है कि जो स्त्री किसी भी कारण से पतिविहीन हो जाती थी, उसे विधवा की श्रेणी में रखा जाता था। महावग्ग में प्रवजित पुरुषों की पत्नियों को भी विधवा कहा गया है।१६ विधवा और सतीप्रथा भारत में अठारहवीं सदी तक सतीप्रथा प्रचलित थी। उस समय तक मृतपति की चिता में जलकर भस्म हो जाना, हिन्दुधर्म में, खासकर ब्राह्मणों व क्षत्रियों में जायज माना जाता था। ७ वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में इस प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तरवैदिककालीन साहित्य के मुख्य ग्रन्थ---रामायण, महाभारत, विष्णुस्मृति आदि ग्रन्थों में अवश्य ही सतीप्रथा-सम्बन्धी छुटपुट एवं अल्प संकेत प्राप्त होते हैं। इतने पर से यह कहना कठिन है कि यह प्रथा जनसामान्य में प्रचलित थी।'८ किन्तु जैन और बौद्ध आगमों में सतीप्रथा का कोई उल्लेख या अनुकूल अभिमत प्राप्त नहीं होता; क्योंकि यदि तत्कालीन समाज में सतीप्रथा का प्रचलन होता तो जीवहिंसा के विरोधी गौतमबुद्ध या भगवान् महावीर अवश्य ही अपने उपदेशों में इसका विरोध करते या इसे पशुबलि की तरह निन्दनीय बताते। अतः स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज में विधवा होने १३. चुल्लवग्ग पृ० २७३ । १४. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारग"बत्तीसाए इब्भकूलबालियाहिं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेइ। - नायाधम्म० ११५।५८ १५. एथ तुम्हे वधुयो"तेन अलंकारेन अलंकारोथ'""- मज्झिम० २।२८८, पारा०पृ० २२ १६. (क) अंतो मय-पइयाप्रो बालविहवायो।-प्रौपपातिक पृ०१६७ (ख) वेधव्याय पटिपन्नो"|-महावग्ग० पृ० ४१ १७. धर्मशास्त्र का इतिहास भा० १ पृ० ३४८ ।। १८. वाल्मीकि रामायण ७/१७।१५, महाभारत १२११४८।१० मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं धम्मोदीखो वा।-विष्णुस्मृति २५।१४, व्यासस्मृति २।५३-मृतं भरिमादाय ब्राह्मणी वह्निमाविशेत् | संसार समद में धर्म ही दीप है wwwwjaimelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड / १८० पर महिला अपने पति की चिता के साथ जल मरने जैसी प्रथा का पालन नहीं करती थी । उसकी स्थिति दयनीय नहीं थी। विधवाओं के जीवनयापन के साधन उस युग में विधवा स्त्री संसार से विरक्त होकर यदि स्वेच्छा से प्रव्रजित होती थी, तब तो उसके समक्ष जीवननिर्वाह का कोई प्रश्न नहीं था । ऐसा न होने पर निम्नोक्त तीन साधनों में से एक का अवलम्बन लेकर विधवा अपना जीवन यापन करती थी (१) पतिद्वारा अजित संपत्ति से, (२) जाति-कुल का संरक्षण पाकर, या (३) परपुरुष को ग्रहण करके । थावच्चा सार्थवाही ने पति के धन को ही जीवनयापन का साधन बनाया था । सोणा भी पति के प्रव्रजित होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वामिनी हो गई थी । " ज्ञातिकुल का संरक्षण के ही विधवाएं लेती थीं, जिनके पास स्वतन्त्र जीवनयापन के पर्याप्त साधन नहीं होते थे। ज्ञातिकुल में माता-पिता, भाई-बहन, कुटुम्बी, स्वधर्मी एवं सगोत्रीय जिन विध बाओं के पास न तो पति द्वारा उपार्जित सम्पत्ति होती थी, और न ही जो ज्ञातिकुल से सम्पन्न होती थीं, उनका वैधव्यजीवन कष्टकारक होता था । चन्दा दरिद्र पिता की पुत्री थी, तथा दरिद्र पुरुष को व्याही थी। जिस समय वह विधवा हुई, निःसन्तान थी अतः उसे वैधव्यजीवन में भोजन - वस्त्रादि साधन भी नहीं मिलते थे । पति, पुत्र और ज्ञातिजनों से हीन पटाचारा को तो अनेक कष्टों से पूर्ण वैधव्यजीवन बिताना पड़ा था। सामान्यतया उच्चकुल की विधवा महिला परपुरुष का श्राश्रय कभी प्रव्रजित पुरुष की नवविवाहिता पत्नी अपने पति की अनुमति से लेती थी । पर यह प्रथा अधिक प्रचलित नहीं थी । २० किसी पुरुष लिए यह स्मरण कराया जाता था कि अभी उसकी पत्नी युवा है। पर कहीं वह परपुरुष के पास न चली जाए । विधवाओं का पुनर्विवाह यद्यपि वैदिककाल में विधवा के लिए पुनर्विवाह का तो नहीं, किन्तु सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए नियोग करने का उल्लेख मिलता है; क्योंकि उस समय सन्तानोत्पत्ति को अधिक १९. ( क ) तत्थणं बारवईए थाबच्चा नामं गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव अपरिभूया । -नायाधम्म० १।५।५८ (ख) बेरी अप० ३२६।२३१ २०. (क) दुग्गताहं पुरे ग्रासि विधवा च प्रपुत्तिका । नहीं लेती थी । कभीपरपुरुष को ग्रहण कर को प्रव्रज्या से रोकने के उसके प्रवजित हो जाने , बिना मित्ते हि जातीहिं, भत्तचोलस्स नाधिगं ॥ -- थेरी० ५।१२।१२२ । (ख) द्वे पुत्ता कालकता, पती च पंथे मतो कपणिकाय । माता पिता च भाता, उम्ति च एकचितकार्य । 1 खीणकुलीने कपणे अनुभूतं ते दुखं अपरिमाणं ।। वही १०।१।२१९-२२० २१. 'भारिया ते नवा ताय! मासा अन्नं जणं गमे... --- सूयगडांग० १।३।२५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८९ महत्त्व दिया जाता था। पति के नि:सन्तान मर जाने पर उसकी वंशपरम्परा को सुरक्षित रखने के लिए देवर या निकट सम्बन्धी से सहवास करना बुरा नहीं माना जाता था। नियोगप्रथा का उद्देश्य यही था। किन्तु जैन-बौद्धयुग में विधवा नारी के लिए पूनविवाह करना सामाजिक दृष्टि से मान्य नहीं था, न ही नियोग-प्रथा मान्य थी, बल्कि इन्हें निन्दनीय समझा जाता था। इसका कारण यह है कि सन्तानोत्पत्ति करना, या वंशपरम्परा चलाना जैनबौद्धयुग में स्त्री या पुरुष के जीवन में अनिवार्य नहीं था। ऐसी स्त्री, जिसका पति मर चुका हो, सम्भवतः अशुभ मानी जाने के कारण कोई भी ऐसी स्त्री को पत्नीरूप में चयन नहीं करता था। इस कारण भी विधवा का पुनर्विवाह जायज नहीं था। ५. भिक्षुणी-जीवन प्रागमकालीन नारीवर्ग में भिक्षणियों का विशिष्ट स्थान था। नारीसमाज की तत्कालीन व्यवस्था में जैन-बौद्ध-युग में जो धर्मक्रान्ति हुई, उसमें भिक्षणीवर्ग में त्याग, वैराग्य एवं संयम के आदर्श के कारण उसके प्रति समग्र समाज में विशेष आदर एवं आकर्षण हुमा । बौद्ध और जैन भिक्षुणियों में अन्तर बौद्ध और जैन दोनों ही युगों में भिक्षुणी-जीवन दुःखों से मुक्ति, शान्ति, और रत्नत्रयसाधना द्वारा मोक्षप्राप्ति का साधन था।' यद्यपि इन दोनों युगों की भिक्षुणियों में साध्य की दृष्टि से समानता थी, किन्तु सामाजिक नारियों के उनके प्रति दृष्टिकोण, आकर्षण, व्यवहार एवं साधना आदि की भिन्नता के कारण उभययुगीन भिक्षणियों में समानता नहीं थी। बौद्ध भिक्षुणी बनने के कारण बौद्धागमों के अनुसार उस समय प्रायः प्रत्येक नारी सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन से उदास, भयभीत एवं व्याकुल होकर भिक्षुणीसंघ में प्रविष्ट होने का प्रयास करती थी। फलतः उस समय भिक्षुणियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि तथागत बुद्ध को उन्हें व्यवस्थित एवं संयमित रखने के लिए पृथक एवं नई आचारसंहिता बनानी पड़ी। फिर भी भिक्षुणियों के शील की असुरक्षा, संघीय अव्यवस्था एवं समाज के बढ़ते हुए अश्रद्धामय दृष्टि २२. (क) पंचहि धम्मेहि "भिक्खु उस्सं कित-परिसंकितो होति ।"इध भिक्खवे, भिक्खु वेसियागोचरो वा होति, विधवागोचरो वा होति ।-अंगुत्तर० २।३८४ (ख) पसाहणठं गम-बिहव -नायाधम्म १।१।२४ १. (क) उपेमि सरणं बुद्ध धम्म संघ च तादिनं । समादियामि सीलानि तं मै अत्थाय होहिति ।। --थेरीगाथा १२॥११२५० (ख) तं सेयं मम 'अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए ।-नायाधम्म० ११४।१०५, निरया० ३।४।११६ २. (क) अहं पि पब्बज्जिस्सामि भातुसोकेन अद्विता । थेरीगाथा १२।४।३२९ । (ख) अस्सोसि खो सा इत्थी-'सामिको किर मं घातेतूकामो' ति। वरभण्डं प्रादाय"." पज्जं याचि । -पाचि० पृ० ३०१ | धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीय nelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / १९० कोण के कारण तथागत बुद्ध के समक्ष नई-नई समस्याएँ खड़ी हो जाती थीं । जिन्हें सुलझाने के लिए उन्हें नये-नये नियम बनाने पड़े जैन भिक्षुणीवर्ग और बौद्ध भिक्षुणीवर्ग में अन्तर - जैनयुग में भिक्षुणीवर्ग जरा संयमित एवं नियमित हो गया था। जैन भिक्षुणी की साधना भी कठोर होती थी जैनभिक्षुषों और भिक्षुणियों के रहने के धर्मस्थान भी अलग-अलग होते थे जैनागमों के अनुसार भिक्षुणीसंघ का अस्तित्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में भी था इसलिए यह कहा जा सकता है कि जैन भिक्षुणीवर्ग को साधना परिपक्व, अनुभूत एवं समाजमान्य थी जबकि बौद्धधर्म में भिक्षुसंघ की स्थापना के पांच वर्ष बाद भिक्षुणी संघ बनाया गया था । इस विलम्ब का मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि बुद्ध स्त्रियों को सांसारिक दुःखों का मूल कारण तथा दुःखविनाश में बाधक भी मानते थे। ग्रतः संद्धान्तिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष में धर्माचरण करने की समान क्षमता मानते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से वे स्त्रियों को भिक्षुणी रूप में संघ में प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे । यही कारण है कि बुद्ध ने पुरुषवर्ग को भिक्षु बनाने में उत्साह बताया, वैसे स्त्रीवर्ग को भिक्षुणी बनाने में उतना उत्साह नहीं बताया। चूंकि बुद्धसंघ को विशुद्ध ब्रह्मचर्यस्थल बनाना चाहते थे, अतः वे ब्रह्मचर्य की विकारभूत स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने के लिए उत्साहित नहीं थे। उस युग में बुद्ध के संघ का जो रूप या, वह भिक्षुणी की सुरक्षा करने में असमर्थ हो गया था। इसीलिए बुद्ध भिक्षुणी रूप में नारी को संघ में प्रवेश देना नहीं चाहते थे। * जैन आगमों के अनुसार उस युग में नारियों को न केवल गार्हस्थ्य अवस्था में पुरुषों के समान धर्माचरण करने का अधिकार था अपितु भिक्षुणी बनने में भी उन पर संघ की ओर से किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। इतना ही नहीं, जैन मान्यतानुसार स्त्री केवलज्ञानी, तीर्थंकर एवं सिद्ध (मुक्त) भी बन सकती थी राजकुमारी महली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर पद प्राप्त किया। काली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा मादि रानियों ने साध्वी बनकर रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना करके केवलज्ञान एवं मोक्ष भी प्राप्त किया था। बुद्ध के मतानुसार स्त्री सम्यक सम्बुद्ध नहीं हो सकती थी। अतः जैन भिक्षुणियां बोद्धभिक्षुणियों की अपेक्षा सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से धार्मिक क्षेत्र में भागे थीं। साधु और साध्वी दोनों को धार्मिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त थे । जैन जनयुग तक भिक्षुणी संघ कोई नवीन संस्था नहीं रह गई थी, इसलिए बौद्धयुग की तरह जैनयुग में भिक्षुनियों के शील की रक्षा करना कोई जटिल समस्या नहीं रह गई थी; ३. चुल्लवग्ग पृ० ३८२-३८६ तथा आगे । ४. इथी मलं ह्मचरियरस, एत्थायं सज्जते पजा । ५. साधु भंते! लभेय्य मातृगामो तथागतप्यवेदिते ति । अलं गोतमि मा ते रुच्चि मातुगामस्स " संयुक्त० १।३६ धम्मविनये प्रगारस्मा अनगारियं पव्वज्ज पव्वज्जा" ति । - चुल्ल० पृ० ३७३ ६. नावाधम्मका ११८१७०,८३० ७. अंतगडदसामो० वां वर्म । ८. प्रदानमेतं भिक्खवे, धनवकास यं इत्थी अहं अस्स सम्मासंबुद्धो । अंगुत्तर० १।१९ -- Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १९१ क्योंकि बौद्धसंघ की तरह जैनसंघ की व्यवस्था गणतंत्र के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं थी, अपितु भिक्ष-भिक्षुणी संघ के सुरक्षण एवं संचालन का भार संघ के वरिष्ठ भिक्षुप्राचार्य पर रहता था। वह केवल पुराने बने हुए नियमों के आधार पर ही नहीं, परिस्थितिवश नये नियम बनाकर भी संघ का संचालन-संरक्षण करता था। वह संघ की, विशेषतः भिक्षणीवर्ग की सुरक्षा करने में सतत जाग्रत रहता था। इसी कारण भ० महावीर और उसके पश्चात प्राचार्य प्रादि नारी को प्रव्रज्या देने में न तो हिचकते थे और न ही किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाते थे। मूल जैनागमों में सामाजिक व्यक्तियों द्वारा जनसाध्वियों पर अनाचार या अनादर किये जाने के उल्लेख नहीं मिलते । निष्कर्ष यह है कि बौद्ध भिक्षुणियों का समाज की ओर से शील की असुरक्षा का जो खतरा बना रहता था, वह जैनयुग तक कम हो गया था। समाज में इनका विशिष्ट स्थान बन गया था। राज्य एवं समाज का सबसे बड़ा व्यक्ति भी भिक्षणी या परिव्राजिका को देखकर आसन से उठता था, उनका स्वागत करता, तथा वन्दना करके उचित सम्मान प्रदर्शित करता था।१० जैनभिक्षुणी बनने के कारण जैनयुग में भिक्षुणी-जीवन के प्रति सामान्य नारी का आकर्षण कम हो गया था। उस समय वे ही स्त्रियाँ जैनभिक्षुणी बनती थीं, जिन्हें ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति की एवं मोक्ष प्राप्त करके सर्वदुःखों का अन्त करने की प्रबल लालसा होती थी, या पारिवारिक जीवन में जिनका किसी दु:ख के कारण रहना कठिन हो जाता। अर्थात या तो वह पति के लिए अप्रिय बन जाती, या वह सन्तान को जन्म देने में असमर्थ होती या विधवा हो जाने से उपेक्षित होती। ऐसी परिस्थिति में, जो नारी संसार से विरक्त होती, वह अपने संरक्षकवर्ग की आसानी से स्वीकृति प्राप्त कर भिक्षणी बन जाती थी। दुःखित, पीडित या अपमानित नारियाँ प्रारम्भ में किसी जैन साध्वी से अपने दुःख निवारण का उपाय पूछती थीं, जब भिक्षुणी दुःख का सावध उपाय न बताकर निरवद्य भिक्षुणी-जीवन ग्रहण करने का उपदेश देती थी तो उन्हें बाध्य होकर भिक्षुणी बनना ही पड़ता था। आशय यह है कि इस युग में नारी भिक्षुणीजीवन के आकर्षण के कारण नहीं, अपितु प्रायः सांसारिक जीवन से खिन्न होने के कारण दीक्षा लेती थी।" - --- ९. निशीथः एक अध्ययन, पृ० ६६ १०. तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ, पासइत्ता सीहासणाप्रो उन्भुट्ठ इ... सक्कारेइ आसणेणं उवनिमंतेइ ।-नायाधम्म० ११८७९ 0 निशीथ एक अध्ययन, पृ० ६६ ११. (क) इच्छामि णं, देवाणुप्पिया ! .."पव्वइत्तए । अहासुह""तए णं सा पउमावई अज्जा एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ।-अन्तकृत्० ५।११८५-८९ (ख) भगवतीसूत्र० १२१२ (ग) अहं तेयलिपुत्रस्स""""अणिट्टा "। तं सेयं खलु मम""पव्व इत्तए । -नाया० १२१४११०५ शग्गो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथं खण्ड / १९२ जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों के लिए नियम जैनभिक्षुणियों को अनुशासन में रखने के लिए तीन-तीन या चार-चार भिक्षुणियों के संघाड़े (संघाटक) बना दिये जाते थे, उस संघाड़े में दीक्षाज्येष्ठ साध्वी रहती थी। सभी संघाड़ों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित रखने के लिए उन पर एक प्रवर्तिनी या महत्तरा चुन ली . जाती थी, जो साध्वियों के चातुर्मास, शिक्षादीक्षा, सेवा, प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्धि की व्यवस्था करती थी। जैनागमों में सामान्यरूप से अधिकांश नियम भिक्षु-भिक्षुणी दोनों के लिए एक से उल्लिखित हैं। अलबत्ता, दूषित मनोवृत्ति के व्यक्तियों से सुरक्षा के निमित्त जैनसाध्वियों के कुछ विशिष्ट नियमों की रचना समय-समय पर की गई है।१२ यद्यपि प्राचार्य-उपाध्याय भिक्षु-भिक्षुणी संघ के वरिष्ठ अधिकारी एवं संरक्षक होते थे. किन्त भिक्षणीवर्ग के अान्तरिक कार्यों में वे हस्तक्षेप नहीं करते थे । प्रवर्तिनी ही आन्तरिक कार्यभार संभालती थी। बौद्ध-भिक्षणीसंघ के लिए सामान्य नियम तो भिक्षुसंघ के आधार पर ही बनाये गए थे, किन्तु कुछ ऐसे विशिष्ट नियम भी बनाए गए थे जो केवल भिक्षुणीजीवन से सम्बन्धित थे। वे विशिष्ट नियम मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं--(१) प्रथम भाग में वे नियम हैं जो भिक्षुणियों की शारीरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाए गए थे, ताकि भिक्षणियाँ समाज में जाएँ तो उनका उपहास या अवमान न हो।१४ द्वितीय भाग में, वे नियम हैं, जो भिक्षुणियों के स्त्रीस्वभावानुसार संचयवत्ति एवं संयमविरुद्ध प्रवृत्तियों को रोकते हैं । तृतीय भाग में ऐसे नियम हैं, जो भिक्षुणियों को कामवासना से दूर रख कर ब्रह्मचर्य का सुदढ़ता से पालन करने के निमित्त से बनाए गए थे । वस्तुतः ये नियम भिक्षणियों को ब्रह्मचर्य से स्खलित होने से बचाने के लिए बनाए गए थे। दोनों धर्मों की भिक्षणियों को यह ध्यान रखना आवश्यक था कि उनके जीवनयापन के, आहार-विहार के तौर-तरीकों से संघ की प्रतिष्ठा को हानि न पहुँचे । वे लोकनिन्दा की पात्र न बनें। (घ) ......."नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं व पयायामि, तं सेयं...."पव्वइत्तए । -निरया० ३।४।११६ (ङ) तं अत्थियाई भे अज्जायो केइ कहिंचि चुण्णजोए वा"जेणाहं""पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि ?.."अम्हे णं समणीयो"नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पगारं ...."तए णं सावयासी-इच्छामि णं" धम्मं निसामित्तए । -नायाधम्म० १११४।१०४, १।१४।११८। १२. (क) बृहत्कल्प भा० ३. पृ० ६५१,६६०,६७०। (a) History of Jain Monachism. P. 473 १३. (क) History of Manachism. P. 468, (ख) नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झाइत्तए होत्तए"।-ववहारसुत्तं० ३११२ (ग) बृहत्कल्प भाग० ५, गा०६०४८ १४. पाचि० पृ० ३८४, महावग्ग पृ० ३०९, चुल्ल० पृ० ३९०-३९१ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | 193 प्राशय यह है कि जैन या बौद्ध भिक्षुणी का जीवन इतना आदर्श, चारित्र-सम्पन्न, ज्ञानमय एवं लक्ष्यमुखी हो / वस्तुतः भिक्षणी-जीवन सर्वोत्कृष्ट जीवन है वह त्याग, तप, वैराग्य और संयम से अनुप्राणित है / आज भी जैनसाध्वी-जीवन प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। उपसंहार इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्परा में नारी अपने पाँचों रूपों में गौरवपूर्ण रही है, उसका भूतकाल भी उज्ज्वल रहा है और भविष्य भी उज्ज्वल रहेगा। संसार समुद्र में वर्म ही दीप है