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________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८३ जैन-बौद्धयुग धार्मिक क्रान्ति का युग था । अतः उस समय धार्मिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करते थे । सपत्नीकृत उपद्रव आगमकालीन समाज में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी । उस समय राजाओं और धनाढ्यों की तो अनेक पत्नियाँ होती ही थीं, साधारण व्यक्ति भी पत्नी के वन्ध्या होने पर दूसरी पत्नी रख लेता था । फलतः इन सपत्नियों के कारण परिवार उपद्रवों का स्थल बन जाता था । पति की प्रिय पत्नी अपनी प्रहितैषी सौतों के विद्वेष के कारण सदैव संतप्त एवं पीड़ित रहा करती थी । वन्ध्या पत्नी प्रायः अपनी गर्भवती सौत के गर्भ को नष्ट करने को उद्यत रहती थी। इसके विपरीत पति की प्रिय पत्नी भी अपनी सौतों का नाश करने का प्रयास करती थी । रेवती ने इसी दुर्भावना से अपनी १२ सौतों का सफाया कर दिया था । सिंहसेन की ५०० रानियाँ थीं, जिनमें श्यामा उसकी सर्वाधिक प्रिय थी। फलतः उपेक्षित रानियों की माताओं ने अपनी पुत्रियों की दयनीय दशा दूर करने हेतु श्यामा को मार डालने की योजना बनाई । श्यामा को मालूम पड़ने पर उसने अपने पर आसक्त सिंहसेन को बहका कर अन्य रानियों की मातानों को मरवा डाला था । इन कारणों से सपत्नी का न होना पत्नी के लिए सौभाग्य एवं पुण्यफल माना जाता था । २७ गृहपत्नी के अच्छे-बुरे कार्यों की समाज में प्रतिक्रिया गृहपत्नी के अच्छे या बुरे कार्यों की प्रतिक्रिया केवल परिवार तक सीमित न रह कर समाज में भी होती थी । वैदेहिका नाम की गृहपत्नी के सद्व्यवहार से समाज में उसकी कीर्ति फैल गई, उसके गुणों की चर्चा होने लगी, किन्तु जब उसने अपने दुर्व्यवहार का परिचय दिया तो समाज में उसकी अपकीर्ति होने लगी । नागश्री ब्राह्मणी द्वारा मुनिवर धर्मरुचि को दिये गये कडवे एवं जहरीले तुम्बे के श्राहार से धर्मरुचि मुनि का देहावसान हो गया तो समाज में उसकी अपकीर्ति बढ़ गई। समाज में जिसकी अपकीर्ति व्याप्त हो जाती थी, उस पत्नी को कभी-कभी तो मार-पीट कर घर से निकाल दिया जाता था । १८ २७. ( क ) उपासकदशा० ८।२३५ (ख) एवं खलु सामी सिंहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए ४ म्हं धूयाओ तो आढाइ । तं सेयं खलु अम्हं सामं देवि जीवियाश्रो ववरोवित्तए । तएणं "सीहरन्ना आलीवियाई ...कालधम्मुणा संजुत्ताइं । - विवागसुयं ० १।९।१६५ - १७१ २८. ( क ) वेदेहिकाय, भिक्खवे, गृहपतानिया एवं कल्याणो कित्तिसद्दो प्रब्भुगतो सोरता वेदेहिका गृहपतानी निवाता उवसंता । मज्झिमनिकाय० १।१६७ (ख) चंडी वेदेहिका गहपतानी वही, १।१६९ (ग) बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ - धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाश्रो ववरोविए । 'तएणं तं माहणा तज्जिता तालित्ता सयाओ गिहाश्रो निच्छुभंति । -नायाधम्म० १।१६।११३ Jain Education International ..... For Private & Personal Use Only ਰਗੀ ਟੀ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jalnelibrary.org
SR No.210606
Book TitleJain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Woman
File Size2 MB
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