Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan Author(s): Nemichandramuni Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान मुनि नेमिचन्द्र, शिखरजी नारी-जीवन के मुख्य पाँच रूप नारी-जीवन को हम मुख्यतया पाँच रूपों में विभक्त करके जैन और बौद्धधर्म की परम्परा में उसका क्या कैसा और कितना स्थान था ? इस सम्बन्ध में विश्लेषण करेंगे । नारी-जीवन के मुख्य पाँच रूप ये हैं- ( १ ) पुत्री, (२) वधू, (३) माता, (४) विधवा और (५) भिक्षुणी । १. पुत्री - जीवन पुत्री-जीवन में सुसंस्कारों का बीजारोपण पुत्री या कन्या नारी जीवन की प्रथम अवस्था है । पुत्री के रूप में ही नारी का सामाजिक जीवन में प्रथम प्रवेश होता है । पुत्री - जीवन में ही नारी जीवन की शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों का बीजारोपण होता है । नारी-जीवन को विशिष्ट उन्नत, शिक्षित एवं संस्कारित बनाने की नींव पुत्री - जीवन से ही रखी जाती है, क्योंकि पुत्री के जीवनयापन का ढंग, शिक्षण एवं संस्कार ही नारी जीवन की सभी अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । वैदिक युग में पुत्री की दशा शोचनीय वैदिक युग 'में पुत्री की दशा शोचनीय नहीं थी, किन्तु उसकी प्राप्ति उतनी प्रिय नहीं होती थी, जितनी कि पुत्र की । उत्तरवैदिककाल में पुत्रप्राप्ति को धार्मिक महत्त्व दिया जाने लगा था । अर्थात् यह समझा जाता था कि "पुत्र उत्पन्न होने से मनुष्य पितृऋण से मुक्त होता है तथा पुत्र पुं नामक नरक से पितरों को बचाता है । पितरों की श्रात्माएँ पुत्रों से पिण्ड एवं जल का तर्पण पाकर सुखी एवं सन्तुष्ट होती हैं ।" पुत्र के उक्त धार्मिक महत्त्व से पुत्री उपेक्षा की पात्र बन गई । वाल्मीकि रामायण में कन्या को कष्टदायिनी बताया गया है, ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि पुत्री जन्म होते ही स्वजनों के लिए दुःखकारिणी होती है विवाह के समय धन लेकर सदा के लिए पराई हो जाती है और यौवनावस्था में भी अनेक दोष कर्त्री होती है । जैन-बौद्धयुग में पुत्र और पुत्री के प्रति समानता का भाव किन्तु जैन और बौद्ध दोनों श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि धर्मों में श्रमण संस्कृति के विकास के साथ पुत्री के प्रति घृणासूचक भाव समाप्त होने लगे क्योंकि पुत्र को महत्त्व देने Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Www.jainelibrary.orgPage Navigation
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