Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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चतुर्थखण्ड / १८४
गृहपत्नी का वैयक्तिक धन
प्राचीनकाल में कुछ सम्पत्ति पत्नी को पति की ओर से मिलती थी, कुछ सम्पत्ति उसे उसके पीहर से स्त्रीधन के रूप में मिलती थी। यह उसकी निजी सम्पत्ति कहलाती थी । २४ जिसमें से वह अपनी इच्छानुसार खर्च कर सकतो या किसी को पुरस्कारस्वरूप दे सकती थी। जीवक ने जब सेठ की पत्नी को स्वस्थ कर दिया तो उस सेठ की पत्नी ने उसे चार हजार रुपये पुरस्कार में दिये थे पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी निजी सम्पत्ति पर प्रायः उसके पुत्र का अधिकार हो जाता था ।
३ मातृ-जीवन
माता सभी धर्मों, दर्शनों और समाजों में आदरास्पद रही है। इसका कारण यह है कि माता अपने पुत्र-पुत्री के लिए जो कष्ट सहती है, जो त्याग करती है, जो वात्सल्य वर्षां करती है, हितशिक्षण और संस्कार देती है, वह अन्य व्यक्ति के लिए अशक्य है। जन्म लेने से पूर्व और पश्चात् सन्तान का सबसे अधिक सम्बन्ध माता से ही रहता है । इसीलिए इसे स्वर्ग से भी बढ़कर माना है । अत: मातृजीवन ही नारी का सबसे गौरवपूर्ण जीवन है । मातृ-भक्ति
बौद्ध और जैन आगमों में माता-पिता के उपकारों से उऋण होना अत्यन्त दुष्कर बताया गया है। बौद्धागमों में माता-पिता का पोषण करना, उनको प्रसन्न रखना, पुण्यकारक कृत्य माना गया है। ऐसे व्यक्ति को पण्डित एवं सत्पुरुष कहा गया है। उन फुलों को उत्तम माना जाता था, जिनमें माता का सम्मान होता था । जो समर्थ होने पर भी माता-पिता का पोषण नहीं करता, उसे वृषल ( शूद्र) माना गया है। जनयुग में माता-पिता 3
२९. (क) इदं ते तात रट्ठपाल । मत्तिकं धनं प्रञ्ञ पेत्तिकं । । - मज्झिम० २२८८ (ख) तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरिया
मट्टहिरण्यकोडीश्री''। - उपा० ८।२३०
(ग) महावमा पृ० २५९
१. (क) द्विन्नाहं भिक्खये, न सुप्पतिकारं वदामि मातुक पितुक अंगुत्तर० (ख) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
(ग) तं भुजाहि ताव जाया ! विपुले "जाव ताव वयं जीवामो तम्रो पच्छा पन्वइस्तंसि ।नाया० १।१।२५
२. (क) धम्मेन भिक्खं परियेसित्वा, मातापितरो पोसेति, बहुसो पुञ्ञ पसवतीति । संयुक्त०] १।१८१
(ख) द्वीसु, भिक्खवे, सम्मापटिपज्जमानो पंडितो वियत्तो सप्पुरिसो होति मातरि च पितरि च । अंगुत्तर० ११०३
(ग) सानेय्यानि तानि कुलानि येसं पुता मातापितरो यज्भागारे पूजिता होंति । -बही० १।२२
३. यो मातरं पितरं वा जिष्णकं गतयोग्यनं । पहु संतो न भरति तं जया बसलो इति । सुत्तनिपात ० १।७।१२४
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