Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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चतुथं खण्ड / १९२
जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों के लिए नियम
जैनभिक्षुणियों को अनुशासन में रखने के लिए तीन-तीन या चार-चार भिक्षुणियों के संघाड़े (संघाटक) बना दिये जाते थे, उस संघाड़े में दीक्षाज्येष्ठ साध्वी रहती थी। सभी संघाड़ों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित रखने के लिए उन पर एक प्रवर्तिनी या महत्तरा चुन ली . जाती थी, जो साध्वियों के चातुर्मास, शिक्षादीक्षा, सेवा, प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्धि की व्यवस्था करती थी। जैनागमों में सामान्यरूप से अधिकांश नियम भिक्षु-भिक्षुणी दोनों के लिए एक से उल्लिखित हैं। अलबत्ता, दूषित मनोवृत्ति के व्यक्तियों से सुरक्षा के निमित्त जैनसाध्वियों के कुछ विशिष्ट नियमों की रचना समय-समय पर की गई है।१२ यद्यपि प्राचार्य-उपाध्याय भिक्षु-भिक्षुणी संघ के वरिष्ठ अधिकारी एवं संरक्षक होते थे. किन्त भिक्षणीवर्ग के अान्तरिक कार्यों में वे हस्तक्षेप नहीं करते थे । प्रवर्तिनी ही आन्तरिक कार्यभार संभालती थी।
बौद्ध-भिक्षणीसंघ के लिए सामान्य नियम तो भिक्षुसंघ के आधार पर ही बनाये गए थे, किन्तु कुछ ऐसे विशिष्ट नियम भी बनाए गए थे जो केवल भिक्षुणीजीवन से सम्बन्धित थे। वे विशिष्ट नियम मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं--(१) प्रथम भाग में वे नियम हैं जो भिक्षुणियों की शारीरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाए गए थे, ताकि भिक्षणियाँ समाज में जाएँ तो उनका उपहास या अवमान न हो।१४
द्वितीय भाग में, वे नियम हैं, जो भिक्षुणियों के स्त्रीस्वभावानुसार संचयवत्ति एवं संयमविरुद्ध प्रवृत्तियों को रोकते हैं ।
तृतीय भाग में ऐसे नियम हैं, जो भिक्षुणियों को कामवासना से दूर रख कर ब्रह्मचर्य का सुदढ़ता से पालन करने के निमित्त से बनाए गए थे । वस्तुतः ये नियम भिक्षणियों को ब्रह्मचर्य से स्खलित होने से बचाने के लिए बनाए गए थे।
दोनों धर्मों की भिक्षणियों को यह ध्यान रखना आवश्यक था कि उनके जीवनयापन के, आहार-विहार के तौर-तरीकों से संघ की प्रतिष्ठा को हानि न पहुँचे । वे लोकनिन्दा की पात्र न बनें।
(घ) ......."नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं व पयायामि, तं सेयं...."पव्वइत्तए ।
-निरया० ३।४।११६ (ङ) तं अत्थियाई भे अज्जायो केइ कहिंचि चुण्णजोए वा"जेणाहं""पुणरवि इट्टा ५
भवेज्जामि ?.."अम्हे णं समणीयो"नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पगारं ...."तए णं सावयासी-इच्छामि णं" धम्मं निसामित्तए ।
-नायाधम्म० १११४।१०४, १।१४।११८। १२. (क) बृहत्कल्प भा० ३. पृ० ६५१,६६०,६७०।
(a) History of Jain Monachism. P. 473 १३. (क) History of Manachism. P. 468,
(ख) नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झाइत्तए होत्तए"।-ववहारसुत्तं० ३११२
(ग) बृहत्कल्प भाग० ५, गा०६०४८ १४. पाचि० पृ० ३८४, महावग्ग पृ० ३०९, चुल्ल० पृ० ३९०-३९१
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