Book Title: Jain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 15
________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८९ महत्त्व दिया जाता था। पति के नि:सन्तान मर जाने पर उसकी वंशपरम्परा को सुरक्षित रखने के लिए देवर या निकट सम्बन्धी से सहवास करना बुरा नहीं माना जाता था। नियोगप्रथा का उद्देश्य यही था। किन्तु जैन-बौद्धयुग में विधवा नारी के लिए पूनविवाह करना सामाजिक दृष्टि से मान्य नहीं था, न ही नियोग-प्रथा मान्य थी, बल्कि इन्हें निन्दनीय समझा जाता था। इसका कारण यह है कि सन्तानोत्पत्ति करना, या वंशपरम्परा चलाना जैनबौद्धयुग में स्त्री या पुरुष के जीवन में अनिवार्य नहीं था। ऐसी स्त्री, जिसका पति मर चुका हो, सम्भवतः अशुभ मानी जाने के कारण कोई भी ऐसी स्त्री को पत्नीरूप में चयन नहीं करता था। इस कारण भी विधवा का पुनर्विवाह जायज नहीं था। ५. भिक्षुणी-जीवन प्रागमकालीन नारीवर्ग में भिक्षणियों का विशिष्ट स्थान था। नारीसमाज की तत्कालीन व्यवस्था में जैन-बौद्ध-युग में जो धर्मक्रान्ति हुई, उसमें भिक्षणीवर्ग में त्याग, वैराग्य एवं संयम के आदर्श के कारण उसके प्रति समग्र समाज में विशेष आदर एवं आकर्षण हुमा । बौद्ध और जैन भिक्षुणियों में अन्तर बौद्ध और जैन दोनों ही युगों में भिक्षुणी-जीवन दुःखों से मुक्ति, शान्ति, और रत्नत्रयसाधना द्वारा मोक्षप्राप्ति का साधन था।' यद्यपि इन दोनों युगों की भिक्षुणियों में साध्य की दृष्टि से समानता थी, किन्तु सामाजिक नारियों के उनके प्रति दृष्टिकोण, आकर्षण, व्यवहार एवं साधना आदि की भिन्नता के कारण उभययुगीन भिक्षणियों में समानता नहीं थी। बौद्ध भिक्षुणी बनने के कारण बौद्धागमों के अनुसार उस समय प्रायः प्रत्येक नारी सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन से उदास, भयभीत एवं व्याकुल होकर भिक्षुणीसंघ में प्रविष्ट होने का प्रयास करती थी। फलतः उस समय भिक्षुणियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि तथागत बुद्ध को उन्हें व्यवस्थित एवं संयमित रखने के लिए पृथक एवं नई आचारसंहिता बनानी पड़ी। फिर भी भिक्षुणियों के शील की असुरक्षा, संघीय अव्यवस्था एवं समाज के बढ़ते हुए अश्रद्धामय दृष्टि २२. (क) पंचहि धम्मेहि "भिक्खु उस्सं कित-परिसंकितो होति ।"इध भिक्खवे, भिक्खु वेसियागोचरो वा होति, विधवागोचरो वा होति ।-अंगुत्तर० २।३८४ (ख) पसाहणठं गम-बिहव -नायाधम्म १।१।२४ १. (क) उपेमि सरणं बुद्ध धम्म संघ च तादिनं । समादियामि सीलानि तं मै अत्थाय होहिति ।। --थेरीगाथा १२॥११२५० (ख) तं सेयं मम 'अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए ।-नायाधम्म० ११४।१०५, निरया० ३।४।११६ २. (क) अहं पि पब्बज्जिस्सामि भातुसोकेन अद्विता । थेरीगाथा १२।४।३२९ । (ख) अस्सोसि खो सा इत्थी-'सामिको किर मं घातेतूकामो' ति। वरभण्डं प्रादाय"." पज्जं याचि । -पाचि० पृ० ३०१ | धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीय nelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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