SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८७ परन्तु बहुत सम्भव है, जातक का यह कथन वैदिकधर्म-परम्परा से प्रभावित हो । वस्तुतः बौद्ध और जैन युग में विधवा नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय नहीं थी।१३ सामाजिक दृष्टि से उसे बुरा या अमंगलसूचक नहीं माना जाता था। विधवा महिलाएं भी सधवानों के समान परिवार एवं समाज में सभी अधिकारों का उपभोग करती थीं। रंगीन वस्त्रों, आभूषणों का उपयोग, मांगलिक कार्यों में प्रवेश या बालों को कटवा लेने आदि का प्रयोग विधवाएँ नहीं करती थीं, ऐसा उल्लेख जैनशास्त्रों में कहीं नहीं मिलता । यह बात दूसरी है कि विधवा नारी स्वयं अपूर्णता का अनुभव करे या स्वेच्छा से प्रसाधन या शृगार में रुचि न ले। थावच्च ने पुत्र के विवाह जैसे मांगलिक कार्य में मुख्यरूप से भाग लिया था।१४ इसी प्रकार रदपाल तथा सुदिन्न के प्रत्रजित हो जाने पर भी उनकी पत्नियाँ अलंकारादि का उपयोग करती थीं।१५ विधवा किसे कहें ? जैनागमों में प्राप्त बालविधवा एवं मृतपतिका नामक भेदों से यही भाव व्यक्त होता है कि जो स्त्री किसी भी कारण से पतिविहीन हो जाती थी, उसे विधवा की श्रेणी में रखा जाता था। महावग्ग में प्रवजित पुरुषों की पत्नियों को भी विधवा कहा गया है।१६ विधवा और सतीप्रथा भारत में अठारहवीं सदी तक सतीप्रथा प्रचलित थी। उस समय तक मृतपति की चिता में जलकर भस्म हो जाना, हिन्दुधर्म में, खासकर ब्राह्मणों व क्षत्रियों में जायज माना जाता था। ७ वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में इस प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तरवैदिककालीन साहित्य के मुख्य ग्रन्थ---रामायण, महाभारत, विष्णुस्मृति आदि ग्रन्थों में अवश्य ही सतीप्रथा-सम्बन्धी छुटपुट एवं अल्प संकेत प्राप्त होते हैं। इतने पर से यह कहना कठिन है कि यह प्रथा जनसामान्य में प्रचलित थी।'८ किन्तु जैन और बौद्ध आगमों में सतीप्रथा का कोई उल्लेख या अनुकूल अभिमत प्राप्त नहीं होता; क्योंकि यदि तत्कालीन समाज में सतीप्रथा का प्रचलन होता तो जीवहिंसा के विरोधी गौतमबुद्ध या भगवान् महावीर अवश्य ही अपने उपदेशों में इसका विरोध करते या इसे पशुबलि की तरह निन्दनीय बताते। अतः स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज में विधवा होने १३. चुल्लवग्ग पृ० २७३ । १४. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारग"बत्तीसाए इब्भकूलबालियाहिं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेइ। - नायाधम्म० ११५।५८ १५. एथ तुम्हे वधुयो"तेन अलंकारेन अलंकारोथ'""- मज्झिम० २।२८८, पारा०पृ० २२ १६. (क) अंतो मय-पइयाप्रो बालविहवायो।-प्रौपपातिक पृ०१६७ (ख) वेधव्याय पटिपन्नो"|-महावग्ग० पृ० ४१ १७. धर्मशास्त्र का इतिहास भा० १ पृ० ३४८ ।। १८. वाल्मीकि रामायण ७/१७।१५, महाभारत १२११४८।१० मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं धम्मोदीखो वा।-विष्णुस्मृति २५।१४, व्यासस्मृति २।५३-मृतं भरिमादाय ब्राह्मणी वह्निमाविशेत् | संसार समद में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwwjaimelibrary.org
SR No.210606
Book TitleJain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Woman
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy