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________________ चतुर्थ खण्ड / १८६ मातृवध : घोर निन्दनीय कृत्य बौद्ध-पागमों में मातृ-वध-सम्बन्धी अनेक उल्लेख मिलते हैं। माता का वध जैसा काला कर्म करने वाला कृष्णफल का भागी, घोरपापी माना गया है। मातृवध करने वाले को भिक्षसंघ में प्रविष्ट नहीं किया जाता था। बौद्ध-युग में इस प्रकार के निकृष्ट कर्म का . अस्तित्व था, जबकि जैनयुग में मातृवध जैसा दारुण पाप इस मात्रा में नहीं होता था। धार्मिक पुरुषों को उसकी निन्दा करने का अवकाश मिले । जैनागमों में मात-वध सम्बन्धी उल्लेखों का प्रभाव सा है। यद्यपि विरक्तात्मा पुत्र माता-पिता की इच्छा की परवाह न करके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता था, लेकिन जीवित हों तो माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था । इसलिए कहा जा सकता है कि जैनयुग में माता की सेवा को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। मातृत्व-लालसा जैनयुगीन नारियों में मातृत्व-प्राप्ति के हेतु सुलसा आदि द्वारा किये गए प्रयत्नों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। ४. विधवा-जीवन वैधव्यजीवन व्यावहारिक दृष्टि से तो अमंगलसूचक माना जाता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से रत्नत्रय की एवं मोक्षरूप लक्ष्य की प्राप्ति के हेतु साधना-पाराधना के लिए वह महत्त्वपूर्ण स्वर्णकाल है। विधवाओं की स्थिति दयनीय या अदयनीय ? यद्यपि वैदिक और उत्तरवैदिककाल में समाज में विधवाओं की स्थिति शोचनीय, दयनीय एवं अमंगलसूचक हो गई थी। उनका विवाहादि उत्सवों या समारोहों में उपस्थित होना, निषिद्ध था। उनकी सम्पत्ति का अधिकार भी नगण्य था। विशेषतः पुत्रहीन विधवा को वैधानिकरूप से पति के धन पर अधिकार नहीं था।" बौद्धयुग में जातक में वैधव्यजीवन के घोर कष्टों की चर्चा की गई है ।१२ ७. ""पूसनंदी राया सिरीए देवीए मायाभत्तए यावि होत्था""देवीए सयपाग-सहस्सयागेहि तेल्लेहि अभिगावेइ"तएणं पच्छा व्हाइ वा भंजइ वा"। -विवागसुयं० २९।१८१ ८. (क) एकच्चयेन माता जीविता वीरो पिता होति.''इदं वुच्चति कम कण्हं कण्ह विपाकं । -अंगुत्तर० २।२५० (ख) मातरं पितरं हत्वा""अनीघो याति ब्राह्मणो।-धम्मपद २११२९४ (ग) मातुघातको, भिक्खवे ! अनुपसंपन्नो, न उपसंपादेतब्बो 'नासेतब्बो ति । -महावग्ग पृ० ९१ अन्तकृद्ददशांगसूत्र १०. .."नगरस्स बहिया नागाणि य भूयाणि य"महरिहं पुप्फचणियं करेत्ता'""दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं तुह्म.."अणुवड्ढे मि।-नाया० ११११४० तथा विवाग-११७।१३८ ११. धर्म शास्त्र का इतिहास भा० १, पृ० ३३०-३३२ १२. जातक २२।५४७।१८३६-३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210606
Book TitleJain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Woman
File Size2 MB
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