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________________ चतुर्थ खण्ड / १७८ विचार एवं सदाचरण का शिक्षण दिया जाता था। ऐसे शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु कभी-कभी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा भी दिलाया जाता था। पतिकूल के सभी सदस्यों के प्रति सम्मान एवं प्रात्मीयता प्रदर्शित करने, पति के पोष्य एवं कर्मकरों के प्रति उचित व्यवहार करने तथा पति के आन्तरिक कार्यों में निपुणता एवं पति द्वारा उपाजित धन तथा साधनों की सुरक्षा में दक्षता दिखाने की शिक्षा भी उसे कन्याकाल में दी जाती थी। राजघराने में जाने वाली कन्याओं को पतिकुल के अनुरूप प्रशिक्षण देने हेतु कन्याओं को अन्त:पुर में रखा जाता था। अन्तकृदृशांग सूत्र में सोमा दारिका के उल्लेख से यह स्पष्ट है। २-वधू-जीवन नारी का दूसरा रूप वध-जीवन है। नारी पतिकल में पत्रवध के रूप में प्रायः पदार्पण करती थी। इस अवस्था में पतिकुल में कर्तव्यनिष्ठा और मधुर व्यवहार के द्वारा वह पतिकुल में प्रतिष्ठा अजित करती थी, जिसके लिए परिवार के सभी सदस्यों, विशेषरूप से सास-ससुर एवं पति का सम्मान करना आवश्यक होता था। बौद्धयुग में वधू सास-ससुर के कठोर नियंत्रण में अपना जीवन-यापन करती थी। जब कोई कुलपुत्र प्रव्रज्या लेने की इच्छा व्यक्त करता था, तो उसके माता-पिता उसे समझाते थे, किन्तु परिवार में पुत्रवधु के रूप में रहने वाली उसकी पत्नी उसे रोकने के लिए प्रयास नहीं करती थी, यहाँ तक कि पुत्रवध प्रव्रज्या के लिए जाते समय पति से बात भी नहीं करती थी।' जिस प्रकार पुत्री, गृहपत्नी, विधवा आदि नारीवर्ग को धर्माचरण करने की अनुमति एवं सुविधाएँ मिल जाती थीं, उस प्रकार की अनुमति एवं सुविधाएँ बहुत ही कम पुत्रवधुनों को उपलब्ध होती थीं। अधिकांश वधुनों को सास-ससुर की अनुमति के बिना कार्य करने पर कठोर दण्ड या उपालम्भ भी मिलता था। बौद्धनागमों के अनुसार एक पुत्रवधू ने श्रमण को स्वेच्छा से रोटी दे दी, यह बात सास को मालम हुई तो उसने पुत्रवधु को फटकारा कि तू अविनीत है, श्रमण को रोटी देते समय मुझसे पूछने की इच्छा नहीं हुई आदि । फिर उसने मुसल से पुत्रवधू को इतना पीटा कि बेचारी बहू मर गई । यहाँ तक कि वधू को कोई उत्तम कार्य ८. ....यथाम्हि अनुसिट्टा-थेरीगाथा १५।११४०९ ९ इमा मे भंते ! कुमारियो पतिकुलानि गमिस्संति । प्रोवदतु....अनुसासतु तासं....यं तासं अस्स दीघरत्रं हिताय सुखाया ति ।-अंगुत्तर० २।३०३ १. (क) अथ खो....मातापितरो एतदवोचुं....त्वं खोसि, तात ! ....अम्हाकं एकपुत्तको.... किंपन मयं जीवंतं अनुजानिस्साम, अगारस्या अनगारियं पव्वजाय ? -पारा. प. १७, मझिम. २।२८३ (ख) तए णं तं....अम्मापियरो एवं वयासी....तो पच्छा मव्वइससि–णायाधम्म.११११२८ २. विमा. १॥३१॥३०९-३१३ ३. इतिस्सा सस्सु परिभासि अविनीतासि त्वं वधू । न म संपुच्छितुं इच्छि, समणस्स ददामहे । ततो मे सस्सू कूपिता पहासि, मुसलेन मं । कटंगच्छि अवधि में नासक्खिं जीवितं चिरं ।। -विमा. ११२९२९२-२९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210606
Book TitleJain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Woman
File Size2 MB
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