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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८१
अतः ऐसी सद्गृहिणी के प्रति पति का भी कर्त्तव्य था, कि वह परस्त्री गमन न करके, तथा ऐश्वर्य एवं अलंकारादि सामग्री प्रदान करके पत्नी को सन्तुष्ट एवं सम्मानित करे। १८
पतिकुल में प्राप्त सम्मान एवं स्वतन्त्रता के कारण गृहपत्नियों के स्वभाव एवं प्राचरण में विभिन्नता भा गई। बौद्ध आगमों में स्वभाव की दृष्टि से पत्नी सात प्रकार की बताई गई है– (१) वधकसमा ( पति की हत्या के लिए उत्सुक, परपुरुषगामिनी दुष्टचित्ता) (२) चोरसमा ( पति के धन-धान्यादि चुराने छिपाने वाली ) (३) मासमा ( पति के सेवकों के प्रति प्रभुत्व प्रदर्शनकर्त्री, आलसी एवं लालची), (४) मातृसमा ( प्रात्मीयता पूर्वक रक्षा करने वाली), (५) भगिनी समा ( गौरवशील, लज्जावती, पति की इच्छा के अनुरूप प्राचरणकर्त्री), (६) सखी - समा ( पति को देखकर प्रसन्न रहने तथा सखीतम व्यवहार करने वाली) एवं (७) दासी - समा ( दासी के अनुरूप आचरणकर्त्री, पति के कटुतम व्यवहार को भी शान्ति से सहन करने वाली ) अंगुत्तरनिकाय में सुजाता नामक कुलवधू के असंयत आचरण को सुधारने की दृष्टि से उक्त भेदों को बताया गया है। सुजाता ने अन्त में दासीसमा बन कर रहने का निश्चय किया था । १०
ऐसा प्रतीत होता है, बौद्धयुग में पराधीनता एवं हीनता की भावना से मुक्ति मिलने पर कतिपय गृहपत्नियाँ स्वच्छन्द बन गई, पति का वध करने को उत्सुक हो गई।
परन्तु जैनयुग तक गृहपत्नियों की ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति समाप्तप्रायः हो गई। जैनागमों में स्वच्छन्दाचरण करने वाली पत्नी के सम्बन्ध में बहुत ही कम उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ- महाशतक श्रावक की पत्नी रेवती ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सौतों की हत्या करके उनकी सम्पत्ति पर अपना कब्जा कर लिया और पति की इच्छा के खिलाफ पापाचरण से युक्त जीवन प्रारम्भ कर दिया। रेवती के इस दुष्टाचरण के पीछे उसकी इच्छा पति के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगने की थी। उसने अपने पति को मारने था उसका बुरा करने का प्रयास नहीं किया। फिर भी रेवती के उसे जब शाप दिया तो वह भयभीत हो उठी । २१ किन्तु ऐसा उदाहरण अपवाद रूप है ।
दुष्ट आचरण से क्रुद्ध होकर पति ने
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१८. ये तु भत्तु गुरुनो भविस्संति ते सक्करिस्ताम ये ग्रमंतराकम्ता तत्थ दक्खा भविस्साम यो प्रब्भंतरो अंतोजनो तेसं जानिस्सामये धनं ते प्रारविखरण गुत्तिया संपदिस्साम । अंगुत्तर १।३०३ ३०४
१९. दधकसमा दासीसमा इमा सत्त पुरिसस्स भारियाम्रो। अंगुत्तर० ३।२३३ २०. अंगुत्तरनिकाय ३४२२५
२१. (क) तए णं सा रेवईछ सवत्तीयो सत्यप्यद्मोगेण उवेइछ सवत्तीयो विसप्पयोगेण उद्वेइ''''तासि सवत्तीर्ण हिरण्णकोडि सयमेव पडिवज्जइ । .... महासवएणं सद्धि उरालाई भोगाभोगाई भुंजमाणी विहरइ । — उपा० ८।२३५
(ख) रूढं णं मम महासयएन नज्जइ णं ग्रहं केणवि कुमारेणं मारिज्जस्सामि ति कट्टु भीया ... भिवाइ उपा० ८।२५२
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धम्मो दीवो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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