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________________ चतुर्थ खण्ड / १८० एक परिवार में एक से अधिक पुत्रवधुएँ होने पर उनके कार्यों का विभाजन ज्येष्ठत्व के आधार पर न होकर बुद्धि के आधार पर होने के उदाहरण जैनागम 'नायाधम्मकहा' में मिलते हैं । उझिया भक्खिया, रक्खिया और रोहिणी की कथा इस पर प्रकाश डालती है। १२ पुत्रवधू गृहपत्नी के रूप में । पुत्रवधू सास-ससुर के दिवंगत हो जाने के पश्चात् अथवा कभी-कभी पुत्र-पौत्रादि हो जाने पर 'गृहपत्नी' के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ करती थी। जनयुग और बौद्ध युग में गृहपत्नी को पति के समान धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। 3 गृहस्थावस्था में जिस प्रकार पुरुष को उपासक या श्रावक बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था, उसी प्रकार नारी को भी उपासिका या श्राविका बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था। बुद्ध ने सद्गुणों से सम्पन्न गहपत्नी को सामाजिक दष्टि से श्रेष्ठ बतलाया।१४ पत्नी के हित का ध्यान रखकर कार्य करने वाले पुरुष को सत्पुरूष बतलाया गया है।'५ फलतः गृहपत्नी का बौद्धयुग में पुन: व्यक्तित्व विकसित होने लगा। वह समाज में सम्मानित समझी जाने लगी। घर की संचालिका बनकर घर में नियम-संयम का पालन करना-करवाना उसका प्रमुख कार्य हो गया। वह पति की हितचिन्तिका एवं सर्वश्रेष्ठ मित्र मानी जाने लगी।" वह पति के द्वारा अजित सम्पत्ति की संरक्षिका भी बन गई । यदि पति नैतिकता एवं धर्म के विरुद्ध कार्य करता तो गृहपत्नी रूठ भी जाती थी और नीति-धर्म-विरुद्ध कार्य न करने को बाध्य कर देती थी।१७ अत: गहपत्नी का कर्तव्य थापति के सम्मानित व्यक्तियों का सम्मान करना, पाभ्यन्तरिक कार्यों में दक्षता प्राप्त करना, परिवार के सदस्यों का उचित ध्यान रखना तथा धन-धान्यादि का रक्षण करना प्रादि । १२. जे?....उज्झिइयं....कुलघरस्स छारुज्झियं....ठावेइ, भोगवइया....महाणसिणि ठावेइ.... रक्खिइयाए....भंडागारिणि ठवेइ, रोहिणीयं....बहूसु कज्जेसु....पमाणभूयं ठावेइ । -नाया. २०७।६८ १३. (क) तएणं सा सिवानंदा....समणोवासिया जाया....--उपासकदशांग. १६२ (ख) ता लोके पढम उपासिका अहेस ....-महावग्ग. पृ. २१ १४. इत्थी पि हि एकच्चिया, सेय्या पोस जनाधिप ! मेधाविनी सीलवती सस्सुदेवा पतिव्बता ।। तस्सा यो जायति फोसो, सूरो होति दिसपत्ति । तादिसा सुभगिया पुत्तो। रज्जपि अनुसासती ति ।-संयुत्तनिकाय ११८५ १५. सप्पुरिसो""पुत्तदारस्स प्रत्थाय हिताय सुखाय होता है।-वही २।३१२ १६. पुनावत्थु मनुस्सानं भरिया च परमो सखा ।---संयुत्त० १।३५ १७. (क) तएणं सा भद्दा धणं सत्थवाह नो पाढाई""तुसिणिया परम्मुही संचिट्ठह । नाया० ११२।४६ (ख) तो णं तुब्भे मम एयमट्ठ परिकहेह; जा णं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करेमि । -निरयावलिका० शश२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210606
Book TitleJain aur Bauddh Paramparao me Nari ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Woman
File Size2 MB
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