Book Title: Jain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Author(s): Ramchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 8
________________ आशीर्वचन जैन तत्त्व विद्या समाधि की विद्या है। समाधि योग की उपलब्धि जागत चेतना की तीव्रतम अभीप्सा है। जैन विद्या के पारगामी विद्वान, उपदेष्टा और अध्येता सबसे पहले प्रज्ञा-समाधि की दिशा में प्रयाण करते हैं। प्रज्ञा-समाधि का प्रथम बिन्दु है यथार्थ की अवगति और अन्तिम बिन्दु है यथार्थ में अवस्थिति । अवगति और अवस्थिति के बीच में समाधि-यात्रा के अनेक पड़ाव हैं। इस यात्रा से गुजरने वाला पथिक अनेक प्रकार की अनुभूतियों के वलय में परिक्रमा करता है। उस परिक्रमा से कुछ घटित होता है और कुछ विघटित हो जाता है। घटक और विघटक परिस्थितियों की निष्पत्ति राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना को भी प्रभावित करती है। जैन विद्या अपने आप में विलक्षण है, इसलिए उसका सांस्कृतिक अवदान भी विलक्षण है। जैन संस्कृति में अन्य संस्कृतियों का सम्मिश्रण होने से उस विलक्षणता में थोड़ा अन्तर आ सकता है पर वह अन्तर समाज की बाह्य चेतना को ही प्रभावित कर पाया है । चेतना का आन्तरिक पक्ष अपने आप में विशिष्ट होता है। उससे प्रस्फुटित होने वाली सांस्कृतिक चेतना का जीवन-निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन विद्या में दो तत्त्व उल्लेखनीय हैं---संवर और निर्जरा! निरोधन और विशोधन इनकी फलश्रुतियां हैं। जिस समाज-चेतना में संभावित असत् को तोड़ने का सामर्थ्य हो वह समाज कभी निराश नहीं हो सकता । समाज चेतना अभ्युदय में जैन मनीषियों, जैन साहित्य और जैन संस्कृति का जो योगदान रहा है, वह अविस्मरणीय है। पिछले वर्ष उदयपुर में जैन विद्या के सन्दर्भ में एक सेमिनार था। सुधी लेखकों ने अपने लिखित शोध-पत्रों को मौखिक प्रस्तुति दी। उस प्रस्तुतीकरण से वे व्यक्ति ही लाभान्वित हुए जो वहां उपस्थित थे । व्यापक लाभ की संभावना से उन शोध-पत्रों के मुद्रीकरण का निर्णय लेकर सेमिनार के आयोजकों ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय दिया है।

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