Book Title: Jain Vidya aur Vigyan
Author(s): Mahaveer Raj Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati Samsthan

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Page 355
________________ आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व ] [317 हे पैगम्बर! तुम उनको उपदेश देते हो, जो तुम्हारे उपदेश को नही स्वीकारते। जिसकी तुम आराधना करते हो, उसकी मैं नहीं करता। जिसकी मैं करता हूं उसकी तुम नहीं करते। तुम्हारे कर्मों का फल तुम्हें मिलेगा मेरे कर्मों का फल मुझे मिलेगा।। इसका सार है कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का जीवन जीएं। हम सबको अपने-अपने कर्मों का फल प्राप्त होगा। इस अवसर पर मुझे संत फ्रांसिस की विख्यात प्रार्थना याद - आती है - . हे ईश्वर! मुझे शांति का साधन बनाएं जहां नफरत हो, वहां प्रेम के बीज बोऊ ___ जहां कोई व्यथित हो, वहां समता का . - जहां संदेह. हो, वहां विश्वास का जहां निराशा हो, वहां आशा का जहां अंधेरा हो, वहां प्रकाश का जहां उदासी हो, वहां आनंद का स्रोत बहाऊं। मैंने राष्ट्रपति पद का दायित्व 25 जुलाई, 2002 को संभालने के पश्चात्, तवांग, जो बारह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है, का भ्रमण किया। वहां . एक बौद्ध मठ है। वहां के मठाधीश से मैंने बातचीत की। मैंने उनसे पूछा'आनंद का उद्गमस्रोत कहां है? वह कहां से आता है?' उन्होंने कहा - 'अगर हमें आनंद और शांति की प्राप्ति करनी है तो 'मैं' और 'मेरा' का विसर्जन करना होगा। यह बहुत ही कठिन कार्य है। 'मैं' और 'मेरा' का विसर्जन होते ही हमारे अहंकार और ममकार का विसर्जन हो जाता है। अहं के विसर्जन से द्वेष का विसर्जन होता है और इसके साथ ही शरीर और मन से हिंसात्मक प्रवृत्तियां विलीन हो जाती हैं।' गुरू नानक ने भी इस पर अपने ग्रंथ के माध यम से प्रकाश डाला है। मुझे इस प्रसंग में आचार्यश्री महाप्रज्ञ का मंगल संदेश बहुत प्रेरित करता है____'सारे मन के भटकाव शरीर से प्रारंभ होते हैं। इस सत्य की अनभिज्ञता ही भय का आधारभूत कारण है। मन के भटकाव की

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