Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 6
________________ (४) उपोद्घात. अध्यात्मशास्त्रसम्भूतसन्तोषसुखशालिनः । गणयन्ति न राजानं न श्रीदं नापि वासवम् ।। श्री न्यायाचार्य यशोविजयजी, आ असार संसारमहोदधिमा जन्ममरणादिक अत्युग्र कष्टोथी मुक्त थवा माटे अनाथ आत्माओ अनेक उपायो शोधेछे. सत्य धर्म माटे अनेक कल्पनाओ करेछे, सूर्यातापनाओ सहेछे. जडभत थड इंद्रियोने दमेछे, एकांत स्थलोमा रमेछे, नीरस भोजनो जमेछे, क्रोधमानमायालोभादिक आत्मशत्रुओथी वेगळा रहेQ गमेछे, नम्रतादि गुणगणेकरी गुणिजनोने नमेछे, प्राणियोना माणोने प्रपात करतां देखी कमकमेछे अने अनेक प्रकारनां योगसाधनो करवा माटे रसाल भूतलोमां भमेछे. परंतु जे अध्यात्मशाखना अमृतांजन विना निरंजनपदाववोध करवा धारेछे ते समल नेत्राए निर्मल सूर्याववोध करवा विचारेछे. "आत्मनि अधिकृत्य अध्या त्मम् " ए वचनथी जेमा आत्मसंबंधी अधिकार-विचार होय तेने अध्यात्मशास्त्र कहेवू योग्य छे, अध्येतव्यं तदध्यात्मशास्त्रं भाव्यं पुन:पुनः। अनुष्ठेयस्तदर्थश्च देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥ एवा अध्यात्मशास्त्रनुं अध्ययन करवू, वारंवार तेनी भावना भाववी-ते संबंधी विचार करवो अने तेनो अनुष्ठानमां-वर्तनमा मकवा लायक अर्थ कोइ योग्य होय तेने आपवो-वताववो. अर्थात आत्मतत्व अने अनात्मतत्त्वनो विचार करवो. आत्मसंबंधी ज्ञान संप्राप्त करवू. अनात्म-जड संबंधी ज्ञान संपादन करवू. ए वे पदा

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