Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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(९)
योमा आगेवान थइ बेसेछे पण समाधिना साधनो भूली असमाधिनां साधनो सेवेछे. सुरसरूपगंधस्पशवालां फळपाकमिष्टान्नादि भोजनसामग्रीना भोग भोगवेछ, मनोहर पुष्पहारकलगीअतरवगैरेनी सुंगधिमां-गरक थइ जायछे, शृंगाररससार कामोद्दीपक रागरागणीना श्रवणमां लीन थइ जायछे, सुंदर स्त्रीओना हावभावकटाक्षरूप रंगनाट्यकलादिनिहाळवामां मस्त बनी तेमना अंगअनंगविलासनी फांसीमां फसाइ जायछे अने पुत्रपौत्रादि संतति परिवार तथा तेमना लग्नमहोत्सवादि जोइ ते दिवसोने धन्य-कृतार्थ-महानंददायी मानेछे. अर्थात् मनोराज उपर विजय नहि मेळवतां इंद्रियोने वश पडी पोते अकृत्योमा प्रवृत्त थइ स्वभक्तोने पण तेवा अकार्यमा जोडी स्वपरहित माने-मनावे छे. ते पण द्रव्याध्यात्मवादियोनी राजिमां मूकवा लायक छे. तेवा बनावटी अध्यात्मवादियोनां भणेलां-रचेलां शास्त्रो पण शस्त्ररूप थइ खपरनो नाश करनारां थइ जायछे. जो द्रव्याध्यात्मवादियो तत्त्वांध थइ एम कहे के अमारा पण अंतःकरणमां तत्तज्ञानरूपी सूर्यनो उदय थयोछे तो तेमनां नेत्रो, पूर्वमहर्षिनी ज्ञानांजनशलाकाथी उन्मीलन करवं. ते ज्ञानरूपी अंजनशलाका केवी छे ? तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥
अध्यात्मज्ञाननो उदय थाय तो रागादिगण-विषयांधता केम रहे ? सूर्योदय थाय तो अंधकार केम रहे ? अंधकार रहे तो सूर्योदय शेनो ? विषयांधता रहे तो अध्यात्मज्ञानोदय शेनो ? तेम होय तो सर्व विषयांधो तत्वज्ञो थइ वेसे. भावाध्यात्मवादियो विषयकषायथी मन दूर राखी निरंतर वैराग्यभावनाओ भावेछे. जेमके, दीपाग्निमां पतंग जंतुओ वळी मरेछे.

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