Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 12
________________ ( १० ) भ्रमरा सुगंधने आधीन थह मरेछे. मृगो पारधीनी वांसली प्रमुखना मधुर शब्दश्रवणने आधीन थइ मरेछे. मत्सो रसनाधीन थइ मरेछे, हस्तियो स्पर्शेद्रिय वश पडवाथी मरेछे. जो ए प्रत्येक प्राणी एक एक इंद्रियविपयथी मरेछे तो जे मनुष्यो पांचे इंद्रियोने वश थइ पडेला छे ते अनाथोनी शी गति ? जो पंचेंद्रियोनो अधीश्वर मन वश न थाय तो समाधिधारक शी रीते थवाय ? माटे हे चेतन ! जो उभयलोकनुं हित करयुं होय तो मनने तथा इंद्रियोने वश कर. इंद्रियोने भोग आपवाथी शरीर पुष्ट थशे ते पण हितकारी छे एम कदापि ना जाण. आत्माने ते अहितकारी थशे एटलुंज नहि पण पुष्टिकारक पदार्थो शरीरना संबंधमां आववाथी अपवित्र थड़ जशे . शरीरनुं चामई, मांस, चरबी, हाड अने रक्त वगेरे कंड पण काममां न लागतां पड्युं रहे तो मनुष्यो दुर्गंधना भयथी मुखनासिका उपर कपडुं नाखी नासानास करेछे. मूत्र, पुरीप, थुंक, नासिकामळ अने चर्मखंड वगेरेने हाथ अडके तो वारंवार जलादि लेइ धोवा पडे छे. एवा अपवित्र शरीरनो अंते दाह करवामां आवे छे एटले ते अपवित्र शरीरनो अंते तो नाश थइ जशे. माटे सुन्न पुरुष भाडानी वस्तुनो सार लेइले तेम आ शरीरवडे संयमक्रिया, परोपकार, दान, शील, तप, शुभाव्यवसाय, ज्ञानाभ्यास अने योगाभ्यास करी मारो आत्मा परमानंदपदस्थ थाय तो सर्व साधनो सफल थयां मानुं. एवी एवी शुभ भावना भावी आत्महितकारी संयमसाधनो करवामां ज प्रमाणिक अध्यात्मज्ञानीओ सदा तत्पर रहेछे. " अध्यात्मविद्या ने अध्यात्मवादियोना संबंधमां अत्र आटलो लांबो प्रस्ताव करवानुं प्रयोजन ए छे के प्रस्तुत ग्रंथ अध्यात्म - आत्मज्ञानना विपयतुं प्रतिपादन करवावाळो छे, तेनो आशय शीघ्र व्यानमां वेसे प्रस्तुत ग्रंथनां १ जैन

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