Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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आ संसारनी आपदाओ क्यांक्यांथी आवी पडेछे ? काळना मुखयंत्रमां भचडाइ कोइ अवसर जीवडाजता रहेवाना छे. वज्रशरीरियो नष्ट थइ गया तो मारा जेवा पामरो काळवायुना सपाटामां उडी जतां रजकणवत् दर्शन पण नहि थाय, मंत्रतंत्रभैपज्यादि साधनो जीव फावे तेटलां करे पण अंतसमये अनाधार आत्माने आधारभूत नहि ज थाय. भले सुरासुर हो के महाराजा हो. तेमनी रक्षामाटे रक्षकशतको, कुटुंवशतको, वैद्यशतको, वज्रतल भूमिशतको अने अपारपरिवारशतको तत्पर हो. परंतु अशरण आत्माओ भूतबलिवत् भूतलभोग थया विना रहेशे ज नहि.
अध्यात्मवादियोमा केटलाक तो नामना ज अध्यात्मवादियो, केटलाक स्थापनामात्र अध्यात्मवादियो अने केटलाक अध्यात्मज्ञानोपयोगशून्य मात्र द्रव्य-शब्दोनो वकवा करनारा द्रव्याध्यात्मवादियो होयछे. जेम नाटकाचार्यों नाना प्रकारना वेपो भनवी स्वार्थ साधे तेम द्रव्याध्यात्मवादियो अनेक चेष्टाओ-इंद्रियनिरुंधनादि वैराग्यजनक आकारो, छटाबंध वचनधाराओ अने योगाभ्यासमचारो करी स्वार्थ साधवा एटले के परधन ते स्वधन केवी रीते थाय तेना उपायो शोधवा अने अनेक प्रकारनां सांसारिक सुखनां साधनो भेगां करवा सांसारिकोने पण न शोभे तेवां कृत्यो धर्मसाधनना नामे करी भक्तलोकोना तनमनधनने स्वाधीन करी लेछे. ते लोकापवादनो भय पण मानता नथी अने संत, महंत, महाराज, स्वामी, पूज्य, आचार्य इत्यादि पदारोहण करी कार्य साधेछे. वळी केटलाक संसार-गृहस्थवासमा रही परमगुरु तरीके पूज्यकोटि . धारण करी भोळी प्रकृतिना भव्यात्माओने भोळवी तेमनां तनमनधन आचार्यार्पण करावी सांसारिक साधनो भक्तो करतां पण अधिक भेगां करी भक्तोने दासत्वकोटिमां नाखी अध्यात्मवादि

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