Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 8
________________ ( ६ ) धारे. परं स्वं तस्करो गृहन् वधवन्धादि नेक्षते ए वचनथी परधन ग्रहण करणार तस्कर गणाय तो अध्यात्मज्ञानीथी ते केम धाय ? तेमज अध्यात्मज्ञानी नाम धरावी स्त्रीव्व थाय तो तेने शी उपमा आपवी ? यदेवांगं कुत्सनीयं गोपनीयं च योषिताम् । तत्रैव हि जनो रज्यत् केनान्येव विरज्यताम् ॥ स्त्रीनुं जे अंग कुत्सनीय अने गोपनीय छे तेमां पण जे बाल जीव लुब्ध थाय ते शेनाथी विरक्त थाय ? नीचमां नीच चर्मचोरी उपर नजर नाखी नारीनयनानंदी यह भटकतो फरे - कुध्यानमां मग्न थइ अध्यात्मज्ञानी कहेवडावे तेने होळीना महाराजा जेवा महाराजा विना वीजुं शुं कहेनुं ? तथा योगमरन महात्माओ धन, धान्य, स्वर्ण, रजत, वस्त्र, पात्र, दास, दासी, स्त्री, हस्ति अने अश्व ए आदिक वाह्य परिग्रहो तथा राग, द्वेष, कपाय, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, वेद, मिथ्याल ए आदि आंतर परिग्रहो जे अध्यात्मज्ञानना शत्रुओ छे तेनो संचय केम करे ? यदीच्छसि सुखं धर्म मुक्तिसाम्राज्यमेव च । तदा परपरीहारादेकामाशां वशीकुरु ॥ आशैव राक्षसी पुंसामाचैव विपमञ्जरी । आशैव जीर्णमदिरा धिगाशा सर्वदोषः ॥ जो सुखनी, धर्मनी अने मुक्तिसाम्राज्यनी इच्छा होयतो पदाथनी आशामात्रनो त्याग कर. आशा पुरुषोनो नाश करनारी राक्षसोछे. आशा विषमंजरी छे. आशा जीर्ण मदिराछे, सर्व दोपोनी भूमिका आशाछे. माटे आशानो त्याग करे त्यारे ज अध्यात्मT सनाथी वासित आत्मा स्तुति करवा योग्य थाय.

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