Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-152 . जैन- तत्त्वमीमांसा-4. की अनेक मान्यताएँ भी महावीर की परम्परा में स्वीकृत की गयीं। इसी क्रम में यह अवधारणा महावीर की परम्परा में स्पष्ट रूप से मान्य हुई। भगवतीसूत्र में सर्वप्रथम यह कहा गया कि यह लोक धर्म, अधर्म, आकाश, अजीव और पुदगल-रूप है। ऋर्षिभाषित में तो, मात्र पाँच अस्तिकाय हैंइतना ही निर्देश है, उनके नामों का भी उल्लेख नहीं है। चाहे ऋषिभाषित के काल में पंचास्तिकायों के नाम निर्धारित हो भी चुके हों, किन्तु फिर भी उनके स्वरूप के विषय में वहाँ कोई भी सूचना नहीं मिलती। धर्म, अधर्म आदि का जो अर्थ आज है, वह कालक्रम में विकसित हुआ है। भगवतीसूत्र में ही हमें ऐसे दो संदर्भ मिलते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में धर्म-अस्तिकाय और अधर्म-अस्तिकाय का अर्थ गति और स्थिति में सहायक द्रव्य नहीं था। भगवतीसूत्र के ही बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय के जो पर्यायवाची दिये गये हैं, उनमें अठारह पापस्थानों से विरति, पाँच समिति और तीन गुप्तियों के पालन को ही धर्मास्तिकाय कहा गया है। इसी प्रकार, प्राचीनकाल में अठारह पापस्थानों के सेवन तथा पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के परिपालन नहीं करने को ही अधर्मास्तिकाय कहा जाता था। इसी प्रकार, भगवतीसूत्र के सोलहवें शतक में यह प्रश्न उठाया गया कि लोकान्त में खड़ा होकर कोई देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं? इसका न केवल नकारात्मक उत्तर दिया गया, अपितु यह भी कहा गया कि गति की सम्भावना जीव और पुद्गल में है और अलोक में जीव और पुद्गल का अभाव होने से ऐसा संभव नहीं है। यदि उस समय धर्मास्तिकाय को गति का माध्यम माना गया होता, तो पुदगल का अभाव होने पर वह ऐसा नहीं कर सकता, इस प्रकार का उत्तर नहीं दिया जाता, अपितु यहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव ही बताया जाता। धर्मास्तिकाय गति में सहायक द्रव्य है और अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक द्रव्य हैयह अवधारणा एक परवर्ती घटना है, फिर भी इतना निश्चित है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक अर्थात् ईसा की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध और चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह अवधारणा अस्तित्व में आ गई थी। भगवती आदि में जो पूर्व संदर्भ निर्दिष्ट किए गए हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि प्राचीनकाल अर्थात् ई.पू. तीसरी-चौथी शती तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अर्थ धर्म और अधर्म की ही अवधारणाएँ थीं।

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