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बैन सिद्धान्त दीपिका
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निश्चित समय से पहले कर्मों का उदय होता है, उसे उदीरणा कहते हैं । उसमें अपवर्तना की अपेक्षा रहती है।
सजातीय प्रकृतियों का आपस में परिवर्तन होता है, उसे संक्रमण' कहते हैं।
मोहकर्म को उदय, उदीरणा, नित्ति एवं निकाचना के अयोग्य करने को उपशम कहते हैं ।
उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष छह करणों के अयोग्य अवस्था को नित्ति कहते हैं।
सव करणों के अयोग्य अवस्था को निकाचना कहते हैं ।
४. कर्मपुद्गलों के ग्रहण को बन्ध कहा जाता है।
जीव के द्वारा कर्मपुद्गलों का ग्रहण -- क्षीर-नीर की भांति परस्पर आपलेप होता है उसे बन्ध कहा जाता है।
वह प्रवाहरूप में अनादि और जो भिन्न-भिन्न कर्म बंधते रहते हैं, उनकी अपेक्षा मादि है ।
प्रश्न-अमूर्त (निराकार) आत्मा के साथ मृतं कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?
उत्तर-अनादि काल से ही कम-आवृत मंसारी आत्माएं कथंचित् मूर्त मानी जाती हैं अत: उनके माथ कर्म-पुद्गलों का सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है ।
१. आयुष्यकर्म की प्रकृतियों नया दर्शनमोह और चारित्रमोह का
आपस में संक्रमण नहीं होता।