Book Title: Jain Siddhant Dipika
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १८६ १२. स्वयंबुद्धसिद्ध-किसी बाहरी निमित्त को प्रेरणा के बिना दीक्षित होकर मुक्त होने वाले । १३. बुद्धबोधितसिद्ध-प्रतिबोध से दीक्षित होकर मुक्त होने वाले। एकसिद्ध-एक समय में जब एक जीव मुक्त होता है। १५. अनेकसिद्ध-एक समय में जब अनेक जीव मुक्त होते हैं । वे उत्कृष्टतः १०८ हो सकते हैं । मुक्त होने के पश्चात् उनमें कोई भेद नहीं होता। वे भेद-मुक्त होने से पूर्व की विभिन्न अवस्थानों पर प्रकाश डालते हैं । चारित्र-लाभ हो जाने पर आत्मा मुक्त हो जाती है। फिर वह किसी भी स्थान, पद, वेश या लिंग में हो और किसी भी प्रकार बोधि-प्राप्त हो। ८. छेदोपस्थाप्य चारित्र...६/५ सामायिक चारित्र में सावध योग का त्याग सामान्य रूप से होता है। छेदोपस्थाप्य चारित्र में सावध योग का त्याग ऐन (विभाग या भेद) पूर्वक होता है।' इसका दूसरा अर्थ यह है-पूर्व पर्याय का छेदन होने पर जो चारित्र प्राप्त होता है, वह छदोपस्थाप्य चारित्र है।' १. तत्त्वार्थमार मंवरवर्णनाधिकार श्लोक ४६ यत्र हिंसादिभेदैन, त्यागः सावद्यकर्मणः । व्रतलोपे विशुद्धिर्वा, छेदोपस्थापनं हि तत् ।। २. अनुयोगद्वार वृत्ति, पृष्ठ २०४ पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापनं महाव्रतेषु यत्र तच्छदोपस्थानम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232