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जैन सिद्धान्त दीपिका २३. योग दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ ।
सत्प्रवृत्ति को शुभयोग और असत्प्रवृत्ति को अशुभयोग कहा जाता है। शुभयोग शुभकर्मपुद्गलों तथा अशुभयोग अशुभकर्मपुद्गलों को आकृष्ट करता है।
यद्यपि सभी आश्रव कर्मबन्ध के हेतु हैं किन्तु कर्म पुद्गलों का आकर्षण केवल योग के द्वारा होता है । उनकी लम्बी स्थिति और तीव्र अनुभाग कषाय के द्वारा होता है।
२४. योगवर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होनेवाले आत्मपरिणाम को लेश्या कहते हैं।
जैसे-"कृष्ण मादि छह प्रकार के पुद्गलद्रव्यों के सहयोग से स्फटिक के परिणमन की तरह होनेवाला आत्मपरिणाम लेण्या है।"
भावलेश्याओं के योग्य पुद्गलों को और कहीं-कहीं वर्ण बादि को भी द्रव्यलेश्या कहते हैं।
२५. लेश्याएं छह हैं : १. कृष्ण
४. तेजः २. नील ५. पप ३. कापोत ६. शुक्ल पहली तीन अशुभ है और शेष तीन शुभ ।
इति बन्ध-पुण्य-पाप-आप्रवस्वस्पनिर्णय ।