________________
जैन सिद्धान्त दीपिका
जिसके द्वारा जीव भवस्थिति को प्राप्त होता है-जीवित रहता है, उसे आयुष्य कर्म कहते हैं ।
जो चारों गतियों में भांति-भांति को अवस्थाओं को प्राप्त करने का हेतु बनता है, उसे नाम कर्म कहते हैं।
जिसके द्वारा जीव ऊंच या नीच बनता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
आत्मशक्ति का प्रतिघात करने वाले कर्म को अन्तराय कहते हैं।
३. कर्मों की दस अवस्थाएं होती हैं-बंध, उद्वर्तना, अपवर्नना, सत्ता, उदय, उदोरणा, मंक्रमण, उपशम, निघत्ति और निकाचना ।
कर्म की आठ अवस्थाओं को करण कहते हैं, जैसे कि कहा है-"बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशम, नित्ति और निकाचना-ये आठ करण हैं।'
कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होती है, उसे उदर्तना कहते हैं।
स्थिति और अनुभाग की हानि होती है, उसे अपवर्तना कहते हैं।
अबाधाकाल' और विद्यमानता को सत्ता कहते हैं।
उदय दो प्रकार का है-जिसके फल का अनुभव होता है, वह विपाकोदय और जिसका केवल आत्म-प्रदेशों में ही अनुभव होता है, वह प्रदेशोदय कहलाता है।
१. कर्म-बन्ध के बाद जितने समय तक वह उदय में नहीं माता, उस
काल को अबाधाकाल कहते हैं।