Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Author(s): Gulabchand Dhadda
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 13
________________ १९०५] तीसरी जैन श्वेताम्बर कॉनफरन्स. काम छोडकर अवश्यही जाना पडता है. जहां जहांपर अपना व्यापार चलता हो वहां वहां पर सहस्त्र दुःख उठाकर के भी जाना पडता है. जहां जहांपर अपने तीर्थ हो वहां वहां पर तीर्थयात्रा निमित्त जानेकी अभिलाषा रहने में जाना पडता है. ऐसा कोई मनुष्य इस समय में नहीं होगा के जो इन कारणों में से किसी न किसी कारण सें अपना मकान छोडकर मुसाफरी न करताहो. जब एक एक कारण का बांधा हुवा मनुष्य कई जगह भटकता है तो फिर एक साल में ऐसी जगह जावे के जिसमें अपने कुल समुदाय के शिरोमणियों के दर्शन हों, तीर्थोके दर्शन हो, जाति और धर्म की उन्नति हो तो इसमें नई वात क्या है ? जो मनुष्य ऐसे समाज में शामिल न हो ऊसकी कार्यवाही पर सद अफसोस है. तीसरा आक्षेप यह है के हजारों लाखों रुपय्या रेलके किराये वगैरह में लगा देते हैं इस रुपय्ये कों किसी शुभ कार्य में ही क्यों नही लगाया जावै ? इसका जवाब एक उदाहरणसें दिया जाता है-जिस वक्त मेघ बरसता है यह खयाल नहीं करताके जरखेज जमीन परही बरसै, उसर जमीन पर न बरसै. मेघ कहीं भी बरसै दुनियां कों फायदा जरूर पहचावेगा, बन्ध और तालाव में पानी भरने से कूप का पानी बढताहै धीरेधीरे मेघ के बरसने से कुलपानी जमीन में पैवस्त होकर कूप के पानी को बढ़ाता है. दीखत में कितनी ही बातें ऐसी दीखा करती हैं कि जिनसें तुरन्त फायदा नहीं मालुम होता बल्के यह मालुम होता है के इन में व्यर्थ श्रम होता है परन्तु अन्त में जब उनका परिणाम शुद्ध आता है तो मालुम होजाता है के दीखत में जो बात श्रमवाली मालुम होती थी उसका दूसरी तरह पर परिणाम ठीक निकला-व्यापार करने के वक्त प्रथम रुपय्या धन्धे में खर्च किया जाता है, दूकान का भाडा, गुमाशतों की तनखुहा दीजाती है किसी व्यापार में नफा होता है किसी में नुकसान होता है उस नुकसान को भी उठाकर धन्धा करना पडता है- इसही तरह पर जब एक मनुष्य के पुत्र या पुत्री उत्पन्न होते हैं तो वह उनकी परवरिश करने में, पढाने में, शादी करने में हजारों रुपय्या लगादेते हैं यदि यह रुपय्या अपने सन्तान की परवरिश से बचाकर किसी धर्म के या उन्नति के काम में लगाते तो अच्छा होता. जब तीर्थयात्रा करने को जाते हैं तो उसमें रेलका और वग्गी गाडी का और डोली वगैरह का किराया देना पडता है बहतर होता कि यह किराया न देना पडता और किसी लब्धी के बल सें फोरन मन का बिचारा हुवा काम करलिया जाता. नोकारशी वगैरह जीमण करके हजारों रुपय्या खर्चा जाता है रहने के वास्ते बडे बडे मकान बागीचा बनाकर रुपय्या खर्च किया जाता है गाडी, वग्गी, घोडा, मोटर साइकिल वगैरह खरीद कर व्यर्थ खर्च किया जाता है यह सब खर्च न करके यदि कुल रुपय्या धर्मके काममें लगाया जाता तो क्या खूब होता ? परन्तु यह कल्पना मात्रही सिद्ध होसक्ता है व्यवहार सिद्ध नहीं हो सक्ता क्योंकि संसारका रस्ताही यह है के जिस मार्गका पैसा उसही मार्गमें लगाया जावै. पस इन बातोंसे सिद्ध होगया के जो पेसा इस कोनफरन्समें जगह जगह से विद्वान, बुद्धिमान, धनवान अग्रेश्वर जैन आ कर रेल

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