Book Title: Jain Shiddhanta Pathmala
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Ajaramar Jain Vidyashala

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Page 14
________________ पृष्ठ पंक्ति अंशुद्ध शुद्ध ३९७ १६* मुमुरो ३९८ ३ दिका ४०१ १५ ह ४०२ २३ ककर्षेण ४०४ २२ विज मुर्मुरा दिका · मुहूर्त कर्षेण विज श्रयं तेसि ४०७ ९ऋत्रय ४११ २२ सि ४१२ १*माण ४१३ १६ व्यंतर ४२११९ योग्ये ४२२ २ दुर्जमा ४२३ ११ अलिना ૨૭ ३ प्रसृते प्रसूते माण व्यंतरा કુર્ | पृष्ठ पंक्ति अंशुद्ध शुद्ध दग्धो मंत्र. ४३८ १६ #दाघां ३३ १३ श्रमं हैं, ४३९ ४४१ ४६ १५ श्रद्ग 'दुगू ● १५ दश्यते दृश्यते बंध: ... ३ वधः २४७ १३ * सम ३४७ २१ त्रिश ४४८ ११ क ४८ १२ पूर्व ४४८ १५ कि योग्यं दुर्लभा ३५० १ णांप लिवां २५४ ६ बाह्य ४५६ १५ त्रि संमू खिंश कि पोप बाह्य खिं ऋण ऋण बार प्रुफ जोवाया छतां पर्वाच दृष्टिदोषथी अस्पष्ट थवाने यंगे तथा अक्षरो उडी जवाथी शुद्धिपत्रक आप डयुं छे, अने धारवा करतां लवाण पण थयुं के ते ददल गुणग्राही aranवर्ग पासे असो क्षन्तव्य इच्छीये हीये. : थने सुधारीने वांचवा भलामण करीए की मूलपाठनुं पुस्तक, तेनुं छायायुक्त पुस्तक, धने पत्राकार छायायुक्त या प्रमाणे त्रण गर्छु काम थवाथी धावा करतां समयनो व्यय घणो थयो छे ने तेवां कारणे या पुस्तकोनां प्र.हकांने मोडुं युं हे ते बदल दिलगीर क्रीये. [ प्रकाशक: ]

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